Thursday, 28 May 2015

अष्‍टावक्र: महागीता--(भाग-2) प्रवचन--15


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खिलता है रात में बेला
प्रभात में शतदल,
नहीं है अपेक्षित स्फुटन के लिए
उजालाअंधेरा।
जागे जिस क्षण चेतना
वही सवेरा।
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खुले नयन से सपने देखोबंद नयन से अपने।
अपने तो रहते हैं भीतरबाहर रहते सपने।
नाम—रूप की भीड़ जगत मेंभीतर एक निरंजन।
सुरति चाहिए अंतर्दृग कोबाहर दृग को अंजन।
देखे को अनदेखा कर रेअनदेखे को देखा।
क्षर लिख—लिख तू रहा निरक्षरअक्षर सदा अलेखा।
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'राजी हैं उसी हाल में जिसमें तेरी रजा है!
यूं भी वाह—वाह हैबू भी वाह—वाह है। '
रामतीर्थ कहते हैंजहां रख—यूं भी तो भी ठीकबू भी तो भी ठीकस्वर्ग दे दे तो भी मस्त नर्क दे दे तो भी मस्त। तू हमारी मस्ती न छीन सकेगाक्योंकि हम तो तेरी रजा में राजी हो गए।
फिर तुम कहते होलेकिन अपने राम को ऐसा लगता है
'यूं भी गड़बड़ी हैबू भी गड़बड़ी है!'
यूं भी झंझटें हैं और बू भी झंझटें हैं। '

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झलक होश की है अभी बेखुदी में
बड़ी खामियां हैं मेरी बंदगी में।
कैसे कहूं कि खत्म हुई मंजिले—फनी
इतनी खबर तो है कि मुझे कुछ खबर नहीं।
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हिमगिरि लांघ चला आया मैं,
लघु कंकर अवरोध बन गया क्षण का साहस केवल संशय,
अगर मूल में जीवित है भय,
जलनिधि तैर चला आया मैं,
उथला तट प्रतिरोध बन गया।
साध्य विमुक्त स्वयं से होना,
द्वंद्व विगत क्या पाना खोना,
हुआ समन्वय सबसे लेकिन,
निज से वही विरोध बन गया,

सूक्ष्म ग्रंथि में यह रेशम मन,
सुलझाने में उलझा चेतन,
क्रिया अहं से इतनी दूषित,
शोधन ही प्रतिशोध बन गया।
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जो हैवह तो तुम्हारे भीतर है —गुरु की मौजूदगी में तुम्हें पता चलने लगता है।
फिरा अपनी ही गंध से अंध कस्तूरा
वन—वन उत्स का अज्ञान
बन गया व्याध का संधान।
फिरा अपनी ही गंध से अंध कस्तूरा!
कस्तूरी कुंडल बसै! वह कस्तूरा फिरता है पागलअंधा बना—अपनी ही गंध से!
फिरा अपनी ही गंध से अंध कस्तूरा!
दौड़ता फिरताभागता कि कहां से गंध आतीगंध पुकारती...!
यह गंध जो तुम मुझमें देख रहे होयह तुम्हारी गंध है। यह स्वर जो तुमने मुझमें सुना हैयह तुम्हारे ही सोए प्राणों का स्वर है।
फिरा अपनी ही गंध से अंध कस्तूरा
वन —वन उत्स का अज्ञान
बन गया व्याध का संधान।
जो मारने वाला छिपा है व्याध कहींउसके हाथ में अचानक कस्तूरा आ जाता है। कस्तुरा अपनी ही गंध खोजने निकला था। तुम भी न मालूम कितने व्याधों के संधान बन गए हो—कभी धन केकभी पद केकभी प्रतिष्ठा के। न मालूम कितने तीर तुम में चुभ गए हैं और तुम भटक रहे हो— खोजते अपने को!
फिरा कस्तूरा अपनी ही गंध से अंध!
अपनी ही गंध का पता नहींभागते फिरते हो! अकारण संसार के हजार—हजार तीर छिदते हैं और तुम्हारे हृदय को छलनी कर जाते हैं।
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एक बची चिनगारीचाहे चिता जला या दीप।

            जीर्ण थकित लुब्धक सूरज की लगने को है आंख
फिर प्रतीची से उड़ा तिमिर—खग खोल सांझ की पांख
हुई आरती की तैयारी शंख खोज या सीप।

            मिल सकता मनवंतर क्षण का चुका सको यदि मोल
रह जाएंगे काल—कंठ में माटी के कुछ बोल
आगत से आबद्ध गतागत फिर क्या दूर समीप?

            एक बची चिनगारीचाहे चिता जला या दीप।
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