Wednesday, 27 May 2015

मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--13



मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--13
तट पर बैठे जो लोग, लहर को क्या जानें?
जिनके मन—मधुवन में
कलिका भी खिली नहीं
जिनको पलभर पतझर से
फुरसत मिली नहीं,
कोयल की स्वरलहरी में
नहीं नहाये जो—
वे मधुऋतु के मदमस्त प्रहर को क्या जानें?
तट पर बैठे जो लोग, लहर को क्या जानें?
जो सुन न सके संगीत
हवा की पायल का
जो देख न पाये खेल
चांद से बादल का।
जिनकी किस्मत में
मावस का अभिनंदन है,
वे ऊषा की रंगीन नजर को क्या जानें?
तट पर बैठे जो लोग, लहर को क्या जानें?
थोथी मर्यादाओं में
जो पलते आये
सांसों का बोझ उठाये
जो चलते आये!
जिनके नभ में बदली न घिरी,
बिजली न हंसी,
वे पी—पी रटते हुए अधर को क्या जानें?
तट पर बैठे जो लोग लहर को क्या जानें?
मधु और गरल कुछ नहीं
समर्पण के पथ में,
फूलों तक जाना है
शूलोंवाले रथ में!
बसते आये जो सदा
घृणा की बस्ती में,
वे प्रेम—नगर या प्रेम—डगर को क्या जानें?
तट पर बैठे जो लोग लहर को क्या जानें?
पर किनारे पर बैठे लोग विवाद खूब करते हैं। लहरों की चर्चा करते हैं। मझधारों की चर्चा करते हैं। उस पार की चर्चा करते हैं। इस विवाद में समय मत गंवाना। हिंदू मुसलमान, ईसाई, जैन, विवाद में समय मत गंवाना। वेद सही कि कुरान कि बाइबिल, समय मत गंवाना। खोज लेना कहीं कोई जीवंत उपनिषद, कोई जीवंत कुरान। जहां अभी पैदा हो रही हो अमृत की वाणी, वहां डुबकी लेना।
देवल जात्रा सुंनि जात्रा तीरथ यात्रा पाणी
अतीत जात्रा सुफल जात्रा बौलै अमृत वाणी?
आज इतना ही--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--13
दे सको दर्शन न तो
केवल अमर विश्वास दे दो।
इस अमावस की निशा में
घिर गया उर में अंधेरा
हो गया ऐसा कि मानों
फिर नहीं होगा सवेरा
मैं जलाता क्षीण सा—
फिर भी प्रणय का दीप अपना
चांदनी की छवि न दो
केवल किरण का हास दे दो।
दे सको दर्शन न तो
केवल अमर विश्वास दे दो।
तृप्ति मिल पाई न कोकिल—
को विरह के गीत गाते
क्षण मिले मधुमास के जो
वे शर्तें से वेध जाते
इन स्वरों की दीर्घ व्यापी
मृदु जलन फूटी गगन में;
दो न छाया मेघ की
केवल सजल आभास दे दो।
दे सको दर्शन न तो
केवल अमर विश्वास दे दो।
देखते हो क्या नहीं वह
बह रही लहरी विकल है
प्रश्न सी आतुर प्रतीक्षामय—
मिला जिसको न हल है
सिंधु के प्रतिबंध देते
हैं तड़पने भी न जी भर
मुक्ति दो चाहे न, केवल
ज्वार का उल्लास दे दो।
दे सको दर्शन न तो
केवल अमर विश्वास दे दो।
मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--13
बन गई बोझा जवानी, आस टूटी, स्वप्न हारे!
विश्व—उपवन कंटकों से युक्त वन पाया पगों ने,
भूल थी मेरी कि मैंने कह दिया नंदन अधिक है!
मुक्ति कम, बंधन अधिक है, प्यार में क्रंदन अधिक है!
आज का सत्कार है कल की उपेक्षा का प्रथम पग,
जग लुटा दो, किंतु, अपना हो नहीं सकता कभी जग!
फाग से जब लौटकर आया, दिखी तब राख सिर पर,
भूल थी मेरी कि मैंने कह दिया चंदन अधिक है!
मुक्ति कम, बंधन अधिक है, प्यार में क्रंदन अधिक है!
आज का गलहार कल की अग्नि—माला का निमंत्रण,
एक क्षण की तृप्ति से तो है भला तृष्णा—नियंत्रण।
ओ, अभागे प्राण—चातक! मिट रहा किसके लिये तू?
रूप ऐसा मेघ जिसमें नीर कम गर्जन अधिक है!
मुक्ति कम, बंधन अधिक है, प्यार में क्रंदन अधिक है।
मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--13
लो शबे—तार गुलामी की सहर आ पहुंची
उंगलिया जाग उठीं
बरबत—ओ—ताऊस ने अंगड़ाई ली
और मुतरब हथेली से शुआएं फूटीं
खिल गये साज में नग्मों के महकते हुए फूल
लोग चिल्लाये कि फरियाद के दिन बीत गये
सहजन हार गये
राहरव जीत गये
काफिले दूर थे मंजिल से बहुत दूर, मगर
खुद—फरेबी की घनी छांव में दम लेने लगे
चुन लिया राह के रोड़ों को, खजफ—रेजों को
और समझ बैठे कि बस लालो—जवाहर हैं यही
सहजन हंसने लगे छुप के कमींगाहो में
हमने आजुर्दगीए—शौक को मंजिल जाना
अपनी ही गर्द—सरे—राह को महमिल जाना
अब जिधर देखो उधर मौत ही मंडराती है।
मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--13
किसी से नीड़ में बिछुडा हुआ पंछी मिला, खोया;
मगर मैं हूं कि सूनी राह पर चुपचाप चलता हूं
थके पग, पर परिश्रम के प्रहर का अंत कब आया?
दिवस का अंत आया, पर डगर का अंत कब आया?
लिये प्रतिबिंब कूलों का, अंधेरे में नदी सोई,
भ्रमर के प्यार की तड़पन कमल के अंक में खोई!
थकी लहरें हुईं खामोश गिर करके किनारों पर,
दृगों में, किंतु, आंसू की लहर का अंत कब आया?
दिवस का अंत आया, पर डगर का अंत कब आया?
पवन ने पी लिया आसव कुमुद की स्निग्ध पाखों का।
किसी ने भी न पोंछा नीर मेरी क्षुब्ध आंखों का
तिमिर का विष गई पी रात चांदी के कटोरे से
मगर मेरी निराशा के जहर का अंत कब आया?
दिवस का अंत आया, पर डगर का अंत कब आया?
मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--13

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