Wednesday, 27 May 2015

मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--15

बज उठी मुरलिया पावस की!
विहसे वन, उपवन
दिक—दिगंत,
हुलसे मानव, पशु,
वन—विहंग लू के झोंके
अब नहीं रहे, शोले सोये,
रवि—किरणों के!
बज उठी मुरलिया पावस की!
कजरारे बादल डोल रहे,
घन—घन मृदंग—से बोल रहे,
नर्तन चम—चम
करती चपला!
क्या मदिर, मधुरतम
समा बंधा!
बज उठी मुरलिया पावस की!
मृदु झड़ी लगी,
संगीत छिड़ा,
रिमझिम — रिमझिम,
लय — ताल — बद्ध!
पुरवाई के हर झोंके में
उल्लास अपरिमित
तैर रहा! नभ से
धरती तक
जग — जीवन
नैसर्गिक रस में
डूब रहा!
बज उठी मुरलिया पावस की!
मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--15
तब—तब ध्यान तुम्हारा आया!
मन में कौंध गई बिजली—सी
छवि का इंद्रधनुष मुसकाया!
सुख की एक घटा—सी छाई,
भीग गया जीवन आंगन—सा
घूम गई कूची दीवानी, हर रेखा मतवारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई वह तस्वीर तुम्हारी निकली!
मेरा रूप तुम्हारा निकला,
मेरा रंग तुम्हारा निकला,
जो अपनी मुद्रा समझी थी,
वह तो ढंग तुम्हारा निकला!
धूप और छाया का मिश्रण
यौवन का प्रतिबिंब बन गया,
होश समझ बैठा था जिसको, वह रंगीन खुमारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई, वह तस्वीर तुम्हारी निकली।
=====================================
मैंने बार—बार झुंझलाकर
रंग बदले, आकृतियां बदलीं,
जो नव आकृतियां अंकित कीं
वे भी प्राण! तुम्हारी निकलीं!
अपनी प्यास दिखाने मैंने
रेगिस्तान बनाना चाहा
पर तसवीर हुई जब पूरी, फागुन की फुलवारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई, वह तस्वीर तुम्हारी निकली!
तुम से भिन्न कहां जग मेरा?
तुम से भिन्न कहां गति मेरी?
तुम से भिन्न स्वयं को समझा,
बहक गई कितनी मति मेरी!
मेरी शक्ति तुम्हीं से संचित,
मेरी कला तुम्हीं से प्रेरित,
जिसको मैं अपनी जय समझा, वह तो तुम से हारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई, वह तस्वीर तुम्हारी निकली!
मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--15
=========================================
सूनी आंखों में रंग प्यार का भर लो,
पतझर में भी मधुमास दिखाई देगा.!
माना, यमुना के तट पर आज उदासी,
माना, उजड़ा—उजड़ा—सा है वृंदावन;
माना, पनघट वीरान पड़ा बरसों से,
हर ओर दिखाई देता है सूनापन!
उर में मुरली की तान बसा कर देखो—
सूनेपन में भी रास दिखाई देगा!
सूनी आंखों में रंग प्यार का भर लो
पतझर में भी मधुमास दिखाई देगा!
प्रियतम को दूर बताकर तुम रोते हो,
तुमने शायद तन को ही प्यार किया है,
मन की समीपता को न कभी पहचाना,
अपराध न यह अब तक स्वीकार किया है!
मन में छलिया का रूप बसाकर देखो—
छलना में भी विश्वास दिखाई देगा!
सूनी आंखों में रंग प्यार का भर लो,
पतझर में भी मधुमास दिखाई देगा!
कागज के फूल चढ़ाते हो प्रतिमा पर?
तुम पूजा को खिलवार समझ बैठे हो!
प्यासे मृग—से दीवाने बने हुए हो,
बालू को ही जलधार समझ बैठे हो!
तन से जो कोसों दूर दिखाई देता,
मन में खोजो तो पास दिखाई देगा!
सूनी आंखों में रंग प्यार का भर लो,
पतझर में भी मुधमास दिखाई देगा!
मंजिल तो न्यौछावर होने आयेगी,
बहके—बहके चरणों की चाल संभालो;
मनुहार करो मत चांद—सितारों की तुम,
केवल अपने उर को आकाश बना लो!
मीरा जैसा संकल्प संजोकर देखो,
विष में अमृत का वास दिखाई देगा!
सूनी आंखों में रंग प्यार का भर लो,
पतझर में भी मधुमास दिखाई देगा!
मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--15
कि सपने टूट जाते हैं
न अपनापन दिखाओ तुम
कि अपने छूट जाते हैं!
न खो जाना रसीली तान में
कल फूल कहते थे
भ्रमर हमका रसीले गीत
गाकर लूट जाते हैं!
कहानी सिंधु—मंथन की
यही फिर—फिर जताती है
सुधा लेकर हलाहल के
पिलाये घूंट जाते हैं!
मुझे कल रात रो—रो कर
बताया एक बच्चे ने—
घरौंदे मत बना लेना
घरौंदे फूट जाते हैं!
किनारे कह रहे थे—
लौटकर आती नहीं लहरें
वचन सौ—सौ मिले हों, पर
निकल सब झूठ जाते हैं!
छिपाकर चंद्रमा को
सिंधु से काली घटा बोली
छटा के देवता ये
अर्चना से रूठ जाते हैं!
मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--15
===================================
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं?
गगन में दमकते करोड़ों सितारे,
घड़ी भर चमककर छिपेंगे बिचारे;
रहा घूम कोई, रहा टूट कोई,
किसे लोचनों का सितारा समझ लूं?
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं
जलधि में कई द्वीप जो दिख रहे हैं,
सभी काल की धार से कट रहे हैं।
यहां भी हिलोरें, वहां भी हिलोरें,
बता दो, कहां मैं किनारा समझ लूं?
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं?
अभी तृप्ति के पल, अभी प्यास के क्षण,
उग्भी अश्रु के तो अभी हास के क्षण!
मिला साथ विष का, सुधा का निमंत्रण,
मुझे आज किसने पुकारा समझ लूं?
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं?
अभी फूलमाला अभी शलमाला,
अभी स्वर्ग, नंदन, अभी नर्क—ज्वाला
अभी डोलिया हैं, अभी अर्थियां हैं
बता दो, कहां मैं गुजारा समझ लूं?
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं?
धरा घूमती है, गगन उड़ रहा है
न जाने किधर यह जलधि बढ़ रहा है!
मुझे छोड्कर सांस तक जा रही है
बता दो, किसे मैं दुलारा समझ लूं?
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं?
मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--15





No comments:

Post a Comment