तब—तब ध्यान तुम्हारा आया!
मन में कौंध गई बिजली—सी
छवि का इंद्रधनुष मुसकाया!
सुख की एक घटा—सी छाई,
भीग गया जीवन आंगन—सा
घूम गई कूची दीवानी, हर रेखा मतवारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई वह तस्वीर तुम्हारी निकली!
मन में कौंध गई बिजली—सी
छवि का इंद्रधनुष मुसकाया!
सुख की एक घटा—सी छाई,
भीग गया जीवन आंगन—सा
घूम गई कूची दीवानी, हर रेखा मतवारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई वह तस्वीर तुम्हारी निकली!
मेरा रूप तुम्हारा निकला,
मेरा रंग तुम्हारा निकला,
जो अपनी मुद्रा समझी थी,
वह तो ढंग तुम्हारा निकला!
धूप और छाया का मिश्रण
यौवन का प्रतिबिंब बन गया,
होश समझ बैठा था जिसको, वह रंगीन खुमारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई, वह तस्वीर तुम्हारी निकली।
मेरा रंग तुम्हारा निकला,
जो अपनी मुद्रा समझी थी,
वह तो ढंग तुम्हारा निकला!
धूप और छाया का मिश्रण
यौवन का प्रतिबिंब बन गया,
होश समझ बैठा था जिसको, वह रंगीन खुमारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई, वह तस्वीर तुम्हारी निकली।
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मैंने बार—बार झुंझलाकर
रंग बदले, आकृतियां बदलीं,
जो नव आकृतियां अंकित कीं
वे भी प्राण! तुम्हारी निकलीं!
अपनी प्यास दिखाने मैंने
रेगिस्तान बनाना चाहा
पर तसवीर हुई जब पूरी, फागुन की फुलवारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई, वह तस्वीर तुम्हारी निकली!
रंग बदले, आकृतियां बदलीं,
जो नव आकृतियां अंकित कीं
वे भी प्राण! तुम्हारी निकलीं!
अपनी प्यास दिखाने मैंने
रेगिस्तान बनाना चाहा
पर तसवीर हुई जब पूरी, फागुन की फुलवारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई, वह तस्वीर तुम्हारी निकली!
तुम से भिन्न कहां जग मेरा?
तुम से भिन्न कहां गति मेरी?
तुम से भिन्न स्वयं को समझा,
बहक गई कितनी मति मेरी!
मेरी शक्ति तुम्हीं से संचित,
मेरी कला तुम्हीं से प्रेरित,
जिसको मैं अपनी जय समझा, वह तो तुम से हारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई, वह तस्वीर तुम्हारी निकली!
तुम से भिन्न कहां गति मेरी?
तुम से भिन्न स्वयं को समझा,
बहक गई कितनी मति मेरी!
मेरी शक्ति तुम्हीं से संचित,
मेरी कला तुम्हीं से प्रेरित,
जिसको मैं अपनी जय समझा, वह तो तुम से हारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई, वह तस्वीर तुम्हारी निकली!
मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--15
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