Sunday, 31 May 2015

अष्‍टावक्र: महागीता--(भाग--6) प्रवचन--14

श्रु से मेरी नहीं पहचान थी कुछ
दर्द से परिचय तुम्हीं ने तो कराया
छू दिया तुमने हृदय की धड़कनों को
गीत का अंकुर तुम्हीं ने तो उगाया
मूक मन को स्वर दिये हैं बस तुम्हीं ने
उम्र भर एहसान भूलूंगा नहीं मैं

मैं न पाता सीख यह भाषा नयन की
तुम न मिलते उम्र मेरी व्यर्थ होती
सांस ढोती शव विवश अपना स्वयं ही
और मेरी जिंदगी किस अर्थ होती
प्राण को विश्वास सौंपा बस तुम्हीं ने
उम्र भर एहसान भूलूंगा नहीं मैं

तुम मिले हो क्या मुझे साथी सफर में
राह से कुछ मोह जैसा हो गया है
एक सूनापन कि जो मन को डसे था
राह में गिरकर कहीं वह खो गया है
शोक को उत्सव किया है बस तुम्हीं ने
उम्र भर एहसान भूलूंगा नहीं मैं

यह हृदय पाहन बना रहता सदा ही
सच कहूं यदि जिंदगी में तुम न मिलते
यूं न फिर मधुमास मेरा मित्र होता
और अधरों पर न यह फिर फूल खिलते
भग्न मंदिर फिर बनाया बस तुम्हीं ने
उम्र भर एहसान भूलूंगा नहीं मैं
तीर्थ सा मन कर दिया है बस तुम्हीं ने
उम्र भर एहसान भूलूंगा नहीं मैं
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जीव भर का सुबरन
देकर भी करता मन
दे दूं कुछ और अभी

तन अंगीकार करो
मन—धन स्वीकार करो
लोभ—मोह—भ्रम लेकर
प्राण निर्विकार करो
प्रति पल प्रति याम दूं
सवेरे दूं शाम दूं
जब तक पूजा—प्रसमन
देकर भी करता मन
दे दूं कुछ और अभी

भक्ति—भाव अर्जन लो
शक्ति साध सर्जन लो
अर्पित है अंतर्तम
अहं का विसर्जन लो
जन्म लो मरण ले लो
स्वप्न—जागरण ले लो
चिर संचित श्रम साधन
देकर भी करता मन
दे दूं कुछ और अभी

यह नाम तुम्हारा हो
धन— धाम तुम्हारा हो
मात्र कर्म मेरे हों
परिणाम तुम्हारा हो
उंगलियां सुमरनी हों
सांसें अनुसरणी हों
शाश्वत स्वर आत्म—सुमन
देकर भी करता मन
दे दूं कुछ और अभी
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जो असंग
वह अभंग
जो अकेला हैजो इतना अकेला है कि अब अकेलापन भी न बचाउसी को कहते असंग। और जो असंग हैवह अभंग है। उसका अब खंड़न नहीं हो सकता है। उसके अब टुकड़े नहीं हो सकते हैं। मैंतू यहवहसब टुकड़े समाप्त हो गये।
जो असंग
वह अभंग
और ऐसी अभंग दशा को सिद्ध कहा है।
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अपना
अपने में बो
अंत: जग
बाहर सो
सिद्ध की यह दशा है।
अपना
अपने में बो
अब कोई दूसरा तो है नहीं।
अपना
अपने में बो
खुद ही बीज हैखुद ही खेत हैखुद ही किसान हैखुद ही फसल हैखुद ही काटेगा। बस अपना ही अपना बचा।
अपना
अपने में बो
अंत: जग
बाहर सो
और जो भीतर हैवही अब बाहर है। जो बाहर हैवही भीतर है। बाहर भीतर भी गया। अभंग। अब न कुछ बाहर हैन भीतर है।
नियति निरपेक्ष है
भ्रम है विरोधाभास
तम—विभा द्वय से
मुक्त है महाकाश
नियति निरपेक्ष है
तो जब तक सापेक्ष हो —ठंडा और गरमसुख और दुख ये सब सापेक्ष बातें हैं। जो तुम्हें सुख हैदूसरे को दुख हो सकता है।
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दिन भर दौड़ी
मांगा मोती
लायी कौड़ी
तुम्हारा जीवन ऐसा है
लहर निगोड़ी
दिन भर दौड़ी
मांगा मोती
लायी कौड़ी
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मैं नियति के व्यंग्य से घायल हुआ हूं
और तुमको गीत गाने की लगी है!

इस तरह की चोट कुछ मन पर हुई है
घाव गहराखून पर बहता नहीं है
मन बहुत समझा रहाआघात सह जा
किंतु तन कमजोर यह सहता नहीं है
बिजलियों ने वक्ष मेरा छू लिया है
और तुमको मुस्कुराने की लगी है!
कर्म की पूजा अधूरी ही पड़ी है
और तुमको रस बहाने की लगी है!
द्वार की सांकल बजाए जा रहा दुख
और तुमको मधु पिलाने की लगी है!
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दिवस उनींदे उन्मन बीते
रात जागरण के प्रण जीते

क्यों आगमन गमन बन जाता
क्यों संहार सृजन बन जाता
मरण जनम या जनम मरण है
कहीं न कोई निराकरण है
ज्ञान गुमान शेष हो जाते
आदि अंत को सीते —सीते

पल में धूप बनी क्यों छाया
माया रूप रूपरत माया
जल मैं उपल उपल में जल है
जीव — जीव में जगत समाया
सरि में लहर लहर में धारा
धार — धार में जीवन सारा
बूंद — बूंद में भरने वाले
भरे — पुरे सागर क्यों रीते

कुशल—क्षेम ही कहते सुनते
चले गये सब क्यूं सिर सुनते
ब्रह्म सत्य तो जग मिथ्या क्यों
रविकर क्यों स्वप्नाबर बुनते
तम में किरण किरण तम कारा
जीत जीत क्यों जीवन हारा
हीरा जनम गंवाया यों ही
रोते — गातेखाते — पीते
ज्ञान गुमान शेष हो जाते
आदि अंत को सीते —सीते
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 तुम भी आंचल गीला कर लो
अब रूठे रहो न फागुन में
चर्गो पर थाप पडी गहरीसब
फड़क उठे ढप—ढप ढोलक
खड़के मृदंग झमकीं झांइाएं
पग थिरक उठे नैना अपलक
लो होड़ लगी देखो —देखो
घुंघरू पायल की रुनझुन में
कुमकुम अबीर के मेघ उड़े
खिलता पलाश फागुन गाओ
ऐसे में मन मारे न रहो
कुछ रस में ड़बोउतर आओ
आओशामिल हो जाओ
मौसम के पूजन— अर्चन में
तुम भी आंचल गीला कर लो
अब रूठे रहो न फागुन में
यह जो महा अमृत का संदेश है र इसे थोड़ा चखो। चखते ही अर्थ खुलेगा। तुम पूछते हो—सिद्ध कौनसिद्ध हुए बिना पता न चलेगा। और सिद्ध तुम इसी क्षण हो सकते हो। क्योंकि सिद्ध होने के लिए न किसी साधन की जरूरत हैन किसी साध्य की। सिद्ध होना तुम्हारा स्वभाव है। तुम स्वरूप से सिद्ध हो। तुम्हारा मोक्ष तुम्हारे भीतर है। तुम सम्राट हो। न मालूम किस अपशगुन में तुमने अपने को भिखारी मान लिया है। न मालूम किस पागलपन में तुम भीख मांगे चले जा रहे हो। छोड़ो इस सपने कोथोडे जागो और सिद्ध का अर्थ तुम्हें पता चलेगा। सिद्ध का अर्थ हैऐसी चैतन्य की दशा जहां अब पाने को कुछ भी न रहा। जो पाना थापा लिया। जो होना थाहो लिये। तृप्ति की ऐसी परमदशा जहां तृष्णा तो है ही नहींतृप्ति भी नहीं है।
हरि ओं तत्सत्!
आज इतना ही।

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