कलियां मधुवन में गंध गमक मुसकाती हैं,
मुझ पर जैसे जादू —सा छाया जाता है।
मैं तो केवल इतना ही सिखला सकता हूं—
अपने मन को किस भांति लुटाया जाता है!
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माना कि बाग जो भी चाहे लगा सकता है
लेकिन वह फूल किसके उपवन में खिलता है?
—जिसके
रंग तीनों लोकों की याद दिलाते हैं
और जिसकी गंध पाने को देवता भी ललचाते हैं।
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तुम जहां हो अभी, चाहता हूं कि तुम्हें समझ में आ जाये कि तुम कारागृह में
हो।
राजमहल का पाहुन जैसा
तृण—कुटिया वह भूल न पाये
जिसमें उसने हों बचपन के
नैसर्गिक निशि—दिवस बिताये
मैं घर की ले याद कड़कती
भड़कीले साजों में बंदी
तन के सौ सुख सौ सुविधा में
मेरा मन बनवास दिया—सा।
सुभग तरंगें उमग दूर की
चट्टानों को नहला आतीं
तीर—नीर की सरस कहानी
फेन लहर फिर—फिर दोहराती
औ' जल का उच्छवास बदल
बादल में कहा—कहा जाता है!
लाज मरा जाता हूं कहते
मैं सागर के बीच प्यासा
तन के सौ सुख सौ सुविधा में
मेरा मन बनवास दिया—सा!
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ठीक है, मैंने ही तेरा नाम ले कर पुकारा था
पर मैंने यह कब कहा था कि यूं आ कर मेरे दिल
में जल?
मेरे हर उद्यम में उघाड़ दे मेरा छल
मेरे हर समाधान में उछाला कर सौ —सौ सवाल अनुपल
नाम? नाम का एक तरह का सहारा था
मैं थका—हारा था, पर नहीं था किसी का गुलाम
पर तूने तो आते ही फूंक दिया घर—बार
हिया के भीतर भी जगा दिया नया हाहाकार
ठीक है, मैंने ही तेरा नाम ले कर पुकारा था
पर मैंने यह कब कहा था कि यूं आ कर मेरे दिल
में जल?
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लेकिन बड़ी घबराहटें हैं। बुद्धों की बातें
सुननी, समझनी—दाव लगाना है, जुआरी का दाव।
एक व्यक्ति पातक इसलिए करता है
कि सबके भीतर पाप के भाव भरे हैं
जहां भी पुण्य की वेदी है, मैं मारू का धुआं हूं
मंडप से झूलता फूलों का बंदनवार हूं
और जो पाप करके लौटा है उसके पातक का
मैं बराबर का हिस्सेदार हूं
एक उपकारी सबके गले का हार है
और जिसने मारा या जो मारा गया है
उनमें से हरेक हत्यारा है
और हरेक हत्या का शिकार है
मैं दानव से छोटा नहीं, न वामन से बड़ा हूं
सभी मनुष्य एक ही मनुष्य हैं
सबके साथ मैं आलिंगन में खड़ा हूं
वह जो हार कर बैठ गया
उसके भीतर मेरी ही हार है
वह जो जीत कर आ रहा है
उसकी जय में मेरी ही जयजयकार है।
जब बुद्ध कहते हैं, तुम बुद्ध हो—तो यह बात प्रीतिकर लगती है, लेकिन इसका एक दूसरा हिस्सा भी है जो अप्रीतिकर
है। वह अप्रीतिकर यह है कि जब बुद्ध कहते हैं तुम बुद्ध हो, तो वे यह भी कह रहे हैं कि तुम महापापी भी हो।
क्योंकि हम सब संयुक्त हैं, जुड़े हैं।
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तुम
क्षुद्र मांग रहे हो विराट से। तुम्हें क्षुद्र तो मिलेगा ही नहीं, विराट
से भी चूक जाओगे।
रस तो अनंत था, अंजुरी भर ही पिया
जी में वसंत था, एक फूल ही दिया
मिटने के दिन आज मुझको यह सोच है
कैसे बड़े युग में कैसा छोटा जीवन जिया!
पीछे पछताओगे! 'मैं' के आसपास खड़ी हुई कोई भी मांग मत उठाओ।’मैं' के पार कुछ मांगो। आज फिर एक बार मैं प्यार को जगाता हूं
खोल सब मुंदे द्वार
इस मारू, धूम, गंध
रुंधे सोने के घर के हर कोने को
सुनहली खुली धूप में नहलाता हूं
आज फिर एक बार तुमको बुलाता हूं
और जो मैं हूंn
जो जाना—पहचाना, जीया
अपनाया है, मेरा है,
धन है, संचय है,
उसकी एक—एक कनी को न्योछावर लुटाता हूं।
जो अब तक जीया, जाना, पहचाना सब न्योछावर करो, लुटा दो! भूलो, बिससे! अतीत को जाने दो। जो नहीं हो गया,नहीं हो गया। राह खाली करो ताकि जो होने को है, वह हो। यह कूड़ा— कर्कट हटाओ।
आज फिर एक बार तुमको बुलाता हूं
और जो मैं हूं
जो जाना—पहचाना, जीया
अपनाया है, मेरा है
धन है, संचय है,
उसकी एक—एक कनी को न्योछावर लुटाता हूं।
प्रभु के द्वार पर तो जब तुम नंगे, रिक्त हाथ, इतने रिक्त हाथ कि तुम भी नहीं, केवल एक शून्य की भांति खड़े हो जाते हो—तभी
तुम्हारी झोली भर दी जाती है।
मंदिर तुम्हारा है, देवता हैं किसके?
प्रणति तुम्हारी है, फूल झरे किसके?
नहीं—नहीं मैं झरा, मैं झुका
मैं ही तो मंदिर हूं औ' देवता तुम्हारा
वहां भीतर पीठिका पर टिके
प्रसाद से भरे तुम्हारे हाथ
और मैं यहां देहरी के बाहर ही सारा रीत गया।
जिस दिन तुम देहरी के बाहर ही सारे रीत जाओगे, उस दिन प्रभु के 'प्रसाद भरे हाथ बस तुम्हारी झोली में ही उंडल
जाते हैं।
वहां भीतर पीठिका पर टिके
प्रसाद से भरे तुम्हारे हाथ
और मैं यहां देहरी के बाहर ही सारा रीत गया!
रीतो, यदि भरना चाहो। मिटो, अगर होना चाहो। शून्य को ही पूर्ण का आतिथ्य मिलता है।
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तन त्रस्त कहीं मन मस्त वहीं
जिस ठौर की मौजे रागों की
रस के सागर से झूल झपट
जीवन के तट पर टकराती।
तन त्रस्त कहीं मन मस्त वहीं
जिस ठौर लहरियां रागों की
रस के मानस की गोदी में
चिर सुषमा का सावन गातीं।
फिर तन कहीं भी हो। फिर तुम्हारा शरीर कहीं भी
हो, कैसी—ही दशा में हो...।
तन त्रस्त कहीं मन मस्त वहीं
जिस ठौर की मौजे रागों की
रस के सागर से झूल झपट
जीवन के तट पर टकराती।
तन त्रस्त कहीं मन मस्त वहीं
जिस ठौर लहरियां रागों की
रस के मानस की गोदी में
चिर सुषमा का सावन गातीं।
लेकिन तन के रास्ते से गुजरना होगा। बिना गुजरे
नहीं कुछ मिल सकेगा। क्रांति घटेगी, निश्चित घटेगी, लेकिन सस्ती नहीं घटती—अर्जित करनी है।
यहां दूसरा वर्ग भी है सुनने वालों का, जो पक कर आया है। उसकी बात कुछ और हो जाती है।
एक मित्र ने लिखा है :
तेरे मिलन में एक नशा है गुलाबी
उसी को पी कर के चूर हूं मैं
अब खो गया हूं होश में
बेहोश होने का गरूर है मुझे।
एक दूसरे मित्र ने लिखा है.
हे प्रभु, अहोभाव के आंसुओ में डूबे मेरे प्रणाम स्वीकार करें और
पाथेय व आशीष दें कि अचेतन में छिपी वासनाओं के बीज दग्ध हो जायें।
एक
और मित्र ने लिखा खै :
मैं अज्ञानी मूढ़ जनम से
इतना भेद न जाना
किसको मैं समझूं अपना
किसको समझूं बेगाना
कितना बेसुर था यह जीवन
डाल न पाया इसको लय में
इन अधरों पर हंसी नहीं थी
चमक नहीं थी इन आंखों में
लेकिन आज दरस प्रभु का पा
सब कुछ मैंने पाया!
निर्भर करता है—तुम्हारी चित्त—दशा पर निर्भर
करता है। कुछ हैं जो ऊब जायेंगे, कुछ हैं जिन्हें प्रभु का
दरस मिल जायेगा। कुछ हैं जो ऊब जायेंगे; कुछ हैं जिनके लिए मंदिर के द्वार खुल जायेंगे। सब तुम पर
निर्भर है।
हरि ओंम तत्सत्!
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