Thursday, 28 May 2015

मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--20


मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--20
धीरे,
धीरे कनेर के फूल
धीरे झरना।
मौन,
मौन मुखरित कोलाहल
चुप रहना।
हौले हौले ओं आरोही समीर,
हौले बहना।
इस सूने टीले के पास
ओं चांद,
जरा धीरे चलना।
साधना की अबोध बेटी
यहां बेखबर सोयी है।
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रात की निस्तब्धता को चीर
यदि कोई अजाना स्वर तुम्हारे कक्ष में गंजे
प्रिये, मत यह समझना
डाक है जगते पहरुए की।
सेज पर छितरी अलस तेरी लटों को।
स्पर्श यदि कोई कंपावे भूल से मत सोचना
कुछ ढीठ सपने उनींदी पलकें तुम्हारी चूमने आये।
पार कर सब खिड़कियों की अर्गलाएं
गंध यदि कोई गुलाबी पास आये,
भरम मत जाना
सलोनी चांदनी गदरा गयी है।
स्वरों के पीछे छिपे पदचाप होंगे
सिहरनों के पार होंगी उंगलियां
झिलमिला घूंघट उठा कर देख लेना
इन्हीं पल में, इन्हीं रूपों में
मैं तुम्हारे पास तक
प्रिय, नित्य आऊंगा।
मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--20

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यहां भी तू वहां भी तू जमीं तेरी, फलक तेरा,
कहीं हमने पता पाया हरगिज आज तक तेरा।
यहां भी तू वहां भी तू जमीं तेरी, फलक तेरा,
कहीं हमने पता पाया हरगिज आज तक तेरा।
खुदाई हाथ आयी तर्क जब कर दी खुदी मैंने'
तेरी गली के कायदा कयाम की क्या बात
इसी को दिल की जबां में नमाज कहते हैं।
जिसे उसकी गली मिल गयी, फिर उसमें बैठे, उठे।
इसी को दिल की जबां में नमाज कहते हैं
मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--20


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मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--20
एक लम्हे को भी वक्त की गर्दिश थमी
हस्वेदस्तृर महोसाल बदलते ही रहे
एक लौ, एक लगन, एक लहक दिल में लिये
हम मुहब्बत की कठिन राह पै चलते ही रहे।
कितने पुरपेच मराहिल को किया तै हमने
वादियां कितनी मिलीं बीच में दुश्वारगुजार
सैकड़ों संगेगिरा राह में हाइल थे मगर
एक लम्हे को भी टूटी जुनू की रफ्तार
आज छाये हैं वो घनघोर अंधेरे लेकिन
जिनमें ढूंढे से भी मिलते नहीं राहों के सुराग
वो अंधेरे, कि निकलते हुए डरती हो निगाह
सामने हो तो नजर आये मंजिल का चिराग
इन धुआंधार अंधेरों से गुजरने के लिए
खूनेदिल से कोई मशअल तो जलानी होगी
इश्क के रफ्तासरगश्ता जुनू को दोस्त!
जिंदगानी की अदा आज सिखानी होगी।
अँधेरा बहुत है।
आज छाये हैं वो घनघोर अंधेरे लेकिन
जिनमें ढूंढे से भी मिलते नहीं राहों के सुराग
वो अंधेरे, कि निकलते हुए डरती हो निगाह
सामने हो तो नजर आये मंजिल का चिराग
लेकिन फिर भी कुछ कहना तो होगा।
इन धुआंधार अंधेरों से गुजरने के लिए
खूनेदिल से कोई मशअल तो जलानी होगी
फिर चाहे दिल का खून ही डाल कर क्यों मशाल जलानी पड़े, मशाल तो जलानी होगी...!
इन धुआंधार अंधेरों से गुजरने के लिए
खूनेदिल से कोई मशअल तो जलानी होगी
इश्क के रफ्तासरगश्ता जुनू को दोस्त!
जिंदगानी की अदा आज सिखानी होगी।

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मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--20
कुछ मेरे बाद और भी आयेंगे काफिले
कांटे यह रास्ते से हटा लूं तो चैन लूं।
इलाही दुनिया में अभी कुछ दिन कयामत आने पाये!
तेरे बनाये हुए बशर को अभी मैं इन्सां बना रहा हूं
'असद' चलो कि बदल दें हयात की तस्वीर
हमारे साथ जमाने का फैसला होगा
अपना अदाशनास बन अपना जमाल भी तो देख
तुझ में कमी है कौनसी, तुझ में कमी कोई नहीं
जब तुम्हें यह भरोसा जायेगा।
तुझ में कमी है कौनसी, तुझ में कमी कोई नहीं
अपना अदाशनास बन अपना जमाल भी तो देख

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मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--20
जलज्योंज्यों गहरा होता है
जल ज्योंज्यों गहरा होता है,
लहरें होती हैं गंभीर।
अंतर सहनशील बनता है
ज्योंज्यों गहरी होती पीर!
बात प्रणय की कुछ मत पूछो,
सौसौ संघर्षों के बीच
सहसह वज सुदृढ़ होती है
यह फूलों वाली जंजीर!
हर आने वाले की आहट
पहले तो चौंकाती है,
ज्योंज्यों होती दीर्घ प्रतीक्षा,
चितवन हो जाती है धीर!
ज्योंज्यों दिवस बीतते जाते,
धुंध समय की छाती है,
अधिकाधिक उजली होती है
बिछुड़े प्रियतम की तसवीर!
जल ज्योंज्यों गहरा होता है
लहरें होती है गंभीर।

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मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--20
रूप की आसक्ति मुझसे तो छोड़ी जा सकेगी!
सिंधु से आकाश बोला चांद को घन में छिपाकर
'चांद है मेरी धरोहर, मत मचल तू व्यर्थ सागर। '
मत्त लहरों के करोड़ों कर उठा कर सिंधु बोला
'चांद की अनुरक्ति मुझसे तो छोड़ी जा सकेगी!
रूप की आसक्ति मुझसे तो छोड़ी जा सकेगी!'
फूल कीटों में छिपाकर के भ्रमर से डाल बोली
'
फूल है मेरी धरोहर, मत बढ़ा तू व्यर्थ झोली। '
गुनगुनाकर, पंख कीटों में बिंधाकर, भृंग बोला
'
गंधमधु की भक्ति मुझसे तो छोड़ी जा सकेगी!
रूप की आसक्ति मुझसे तो छोड़ी जा सकेगी!'
देख निर्झर को निकट आते, नदी के कूल बोले
'
व्यर्थ आया तू यहां तक, बावले, भुजपाश खोले!'
काट करके कूल की चट्टान निर्झर ने कहा यह
'
प्यार की सौगंध मुझसे तो तोड़ी जा सकेगी!
रूप की आसक्ति मुझसे तो छोड़ी जा सकेगी!

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मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--20
सच कह दूं बिरहमन! गर तू बुरा माने
तेरे सनमकदों के बुत हो गये पुराने
अपनों से बैर रखना तूने बुतों से सीखा
जंगोजदल सिखाया वाइज को भी खुदा ने
तंग आके मैंने आखिर दैरोहरम को छोडा
वाइज का वाज छोड़ा, छोड़े तेरे फसाने
पत्थर की मूरतों में समझा है तू खुदा है
खाकेवतन का मुझको हर जर्रा देवता है
गैरियत के पर्दे इक बार फिर उठा दें
बिछड़ों को फिर मिला दें, नक्योदुई मिटा दें
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
इक नया शिवाला इस देश में बना दें
दुनिया के तीर्थों से ऊंचा हो अपना तीरथ
दामानेआस्मा से इसका कलश मिला दें
हर सुबह उठके गाएं मंतर वो मीठेमीठे
सारे पुजारियों को मय मीत की पिला दें
शक्ति भी शांति भी भक्तों के गीत में है
धरती के वासियों की मुक्ति परीत में है।


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मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--20
एक दिवस बीत गया!
ऊषा मधुबालासी
लाई थी जिसको भर,
संध्या के चरणों पर
कुमकुमघट रीत गया!
एक दिवस बीत गया!
झूम उठे थे जिससे
मधुवन के कुंज प्रात,
कलिका का हास गया,
मधुकर का गीत गया!
एक दिवस बीत गया!
मंजिल नित पास दिखी,
फिर भी नित दूर रही,
पंथी के पग हारे
निष्ठुर पथ जीत गया!
एक दिवस बीत गया!
नयनों के तारे को
बतलाये कौन भला
नयनों के पथ से बह
उर का नवनीत गया!
एक दिवस बीत गया!

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मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--20
सरल! तुम अनजान आए।
भावना में कल्पना से
वेदना में साधना से
मधुर स्मृति की पुलक से
हृदय में छिप मुस्कुराए।
सरल! तुम अनजान आए।
विरह का वरदान लेकर
विकल उर का गान लेकर
आंख मुझसे ही चुरा कर
मौन आंखों में समाए।
सरल! तुम अनजान आए।
मैं था पहचान पाया
किंतु जीवनधन बनाया
मान कर सर्वस्व तुमको
हैं तुम्हारे गान गाए।
सरल! तुम अनजान आए।
प्रेम की ज्वाला जलाई
ज्योति जीवन में जगाई
स्वप्न के संसार से मैं
दूर था, तुम पास लाए।
सरल! तुम अनजान आए।
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