Sunday, 31 May 2015

अष्‍टावक्र: महागीता (भाग--5) प्रवचन--4

यह कौन—सा मुकाम है!
फलक नहींजमीं नहीं
कि शब नहींसहर नहीं
कि गम नहींखुशी नहीं
कहा यह लेकर आ गई
हवा तेरे दयार की!
अगर तुम ऐसे चुप होकर बैठ गए अनेकाग्र हो कर बैठ गए तो एक दिन पाओगे— यह कौन सा मुकाम है!
फलक नहींजमीं नहीं
कि शब नहींसहर नहीं
कि गम नहींखुशी नहीं
कहां यह लेकर आ गई
हवा तेरे दयार की!
तुम्हीं थे मेरे रहनुमा
तुम्हीं थे मेरे हमसफर
तुम्हीं थे मेरी रोशनी
तुम्हीं ने मुझको दी नजर
बिना तुम्हारे जिंदगी
शमा है एक मजार की!
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ओ गीले नयनों वाली ऐसे आंज नयन
जो नजर मिलाए तेरी मूरत बन जाए
ओ प्यासे अधरों वाली इतनी प्यास जगा
बिन जल बरसाए यह घनश्याम न जा पाए
रेशम के झूले डाल रही है झूल धरा
आ—आ कर द्वार बुहार रही है पुरवाई
लेकिन तू धरे कपोल हथेली पर बैठी
है याद कर रही जाने किसकी निठुराई!
जब भरी नदीतू रीत रही
जी उठी धरातू बीत रही
ओ सोलह सावन वाली ऐसे सेज सजा
घर लौट न पाए जो घूंघट से टकराए
ओ प्यासे अधरों वाली इतनी प्यास जगा
बिन जल बरसाए यह घनश्याम न जा पाए

 बादल खुद आता नहीं समुंदर से चल कर
सुनो—
बादल खुद आता नहीं समुंदर से चल कर
प्यास ही धरा की उसे बुला कर लाती है
जुगनू में चमक नहीं होती केवल तम को
छूकरउसकी चेतना ज्वाला बन जाती है
सब खेल यहां पर है धुन का
जग ताना—बाना है गुण का
ओ सौ गुण वाली ऐसी धुन की गांठ लगा
सब बिखरा जल सागर बन—बन कर लहराए
ओ प्यासे अधरों वाली इतनी प्यास जगा
बिन जल बरसाए यह घनश्याम न जा पाए
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नभ की बिंदिया चंदावाली
भूखी अंगिया फूलोंवाली
सावन की ऋतु झूलोंवाली
फागुन की ऋतु भूलोंवाली
कजरारी पलकें शरमीली
निदियारी अलकें उरझीली
गीतोंवाली गोरी ऊषा
सुधियोंवाली संध्या काली
हर चूनर तेरी चूनर है
हर चादर तेरी चादर है
मैं कोई घूंघट क्कुं
तुझे ही बेपरदा कर आता हूं
हर दर्पण तेरा दर्पण है।
पानी का स्वर रिमझिम—रिमझिम
माटी का रुख रुनझुन—रुनझुन
बातून जनम की कुनुन—मुनुन
खामोश मरण की गुपुन—चुपुन
नटखट बचपन की चलाचली
लाचार बुढ़ापे की थमथम
दुख का तीखा—तीखा क्रंदन
सुख का मीठा—मीठा गुंजन
हर वाणी तेरी वाणी है
हर वीणा तेरी वीणा है
मैं कोई छेडूं
तान
तुझे ही बस आवाज लगाता हूं
हर दर्पण तेरा दर्पण है!
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छिन—छिन ऐसा लगे कि कोई
बिना रंग के खेले होली
यूं मदूमाए प्राण कि जैसे
नई बहू की चंदन डोली
जेठ लगे सावन मन भावन
और दुपहरी सांझ बसंती
ऐसा मौसम फिराधूल का
ढेला एक रतन लगता है।

 तुम्हें देख क्या लिया कि कोई
सूरत दिखती नहीं पराई
तुमने क्या छू दिया बन गई
महाकाव्य गीली चौपाई
कौन करे अब मठ में पूजा
कौन फिराए हाथ सुमिरनी
जीना हमें भजन लगता है
मरना हमें हवन लगता है।
तुम्हें चूमने का गुनाह कर
ऐसा पुण्य कर गई माटी
जनम—जनम के लिए हरी
हो गई प्राण की बंजर घाटी
पाप—पुण्य की बात न छेड़ो
स्वर्ग—नरक की करो न चर्चा
याद किसी की मन में हो तो
मगहर वृंदावन लगता है।
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सूरत दिखती नहीं पराई
तुमने क्या छू दियाबन गई
महाकाव्य गीली चौपाई
कौन करे अब मठ में पूजा
कौन फिराए हाथ सुमिरनी
जीना हमें भजन लगता है
मरना हमें हवन लगता है!

 आज इतना ही।
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