एक बुलबुल का जला कल आशियाना जब चमन में
फूल मुस्काते रहे छलका न पानी तक नयन में
सब मगन अपने भजन में था किसी को दुख न कोई
सिर्फ कुछ तिनके पड़े सिर धुन रहे थे उस हवन में
हंस पड़ा मैं देख यह तो एक झरता पात बोला
हो मुखर या मूक, हाहाकार सबका है बराबर
फूल पर हंस कर अटक तो शल को रोकर झटक मत
ओ पथिक, तुझ पर यहां अधिकार सबका है बराबर
है अदा यह फूल की छूकर उंगलियां रूठ जाना
स्नेह है यह शूल का चुभ उम्र छालों की बढ़ाना
मुश्किलें कहते जिन्हें हम राह की आशीष हैं वे
और ठोकर नाम है बेहोश पग को होश आना
एक ही केवल नहीं है, प्यार के रिश्ते हजारों
इसलिए हर अश्रु को उपहार सबका है बराबर
फूल पर हंस कर अटक तो शल को रोकर झटक मत
ओ पथिक, तुझ पर यहां अधिकार सबका है बराबर
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साक्षी रस है।
रसो वै सः।
आज इतना ही।
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