पहाड़ नहीं कांपता, न पेडू, न तराई
कापती है ढाल पर के घर से
नीचे झील पर झरी दीये की लौ की नन्हीं परछाईं।
पहाड़ नहीं कांपता, न पेड़, न तराई
कापती है ढाल पर के घर से
नीचे झील पर झरी दीये की ली की नन्हीं परछाईं।
तुम नहीं कंपते—तुम तो पहाड़ हो अचल। तुम्हारे
केंद्र पर कोई कंपन नहीं है। कंपती है केवल परछाईं। मन कंपता है। यह समझ में आ जाए
तो इसी क्षण क्रांति हो सकती है। यह समझ में न आए तो ध्यान की प्रक्रियाओं से
गुजरो, ताकि ऐसा क्षण आ जाए, जिस क्षण तुम्हारी समझ में आ सके।
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सोचता था मैंने जो नहीं कहा
वह मेरा अपना रहा, रहस्य रहा
अपनी इस निधि, अपने संयम पर
मैंने बार—बार अभिमान किया
पर हार की तक्षण धार है साल रही
मेरा रहस्य उतना ही रक्षित है
उतना भर मेरा रहा
जितना किसी अरक्षित क्षण में
तुमने मुझसे कहला लिया
जो औचक कहा गया, वह बचा रहा
जो जतन संजोया, चला गया।
यह क्या, मैं तुमसे या जीवन से
या अपने से छला गया!
जो औचक कहा गया, वह बचा रहा
जो जतन संजोया, चला गया!
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कन्हाई ने प्यार किया
कितनी गोपियों को कितनी बार
पर उड़ेलते रहे अपना सारा दुलार
उस एक रूप पर जिसे कभी पाया नहीं,
जो कभी हाथ आया नहीं
कभी किसी प्रेयसी में उसी को पा लिया होता
तो दुबारा किसी को प्यार क्यों किया होता?
कवि ने गीत लिखे नये —नये बार—बार
पर उसी एक विषय को देता रहा विस्तार
जिसे कभी पूरा पकड़ पाया नहीं
जो कभी किसी गीत में समाया नहीं
किसी एक गीत मैं वह अट गया दिखता
तो कवि दूसरा गीत ही क्यों लिखता?
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मंत्र धुंधवाए हवन के
दर्द अकुराए चमन के
बोल सांसों को मलय
वातास दूं लाकर कहां से?
देख चारों ओर फैले
सर्प क्षितिजों पर विषैले
बोल पंखों को खुला
आकाश दू लाकर कहा से?
नाम लहरों ने मिटाए
सब घरौंदे खुद ढहाए
बोल सपनों को नए
रनिवास दूं लाकर कहां से?
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हां, बहुत दिन हो गए घर छोड़े
अच्छा था मन का अवसन्न रहना
भीतर— भीतर जलना, किसी से न कहना
पर अब बहुत ठुकरा लिए पराई गलियों के अनजान
रोड़े
नहीं जानता कब कौन संयोग
ये डगमग भटकते पग
फिर इधर मोडे या न मोडे
पर हां, मानता हूं कि जब तक पहचानता हूं
कि बहुत दिन हो गए घर छोड़े।
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ज्ञात नहीं जाने किस द्वार से
कौन से प्रकार से मेरे गृह—कक्ष में
दुस्तर तिमिर दुर्ग दुर्गम विपक्ष में
उज्ज्वल प्रभामयी
एकाएक कोमल किरण एक आ गयी
बीच से अंधेरे के हुए दो टूक
विस्मय—विमुग्ध मेरा मन पा गया अनंत धन!
तुम्हें पता भी न चलेगा कि कब किस अज्ञात क्षण
में, बिना कोई खबर दिये अतिथि की
भांति परमात्मा द्वार पर दस्तक दे देता है।
धर्म के इतने जाल की जरूरत नहीं है, अगर तुम सहज हो। क्योंकि सहज होना यानी
स्वाभाविक होना, स्वाभाविक होना यानी धार्मिक
होना। महावीर ने तो धर्म की परिभाषा ही स्वभाव की है बत्यु सहावो धम्मो! जो वस्तु
का स्वभाव है, वही धर्म है। जैसे आग का
धर्म है जलाना, पानी का धर्म है नीचे की तरफ
कहना—ऐसा अगर मनुष्य भी अपने स्वभाव में जीने लगे तो बस हो गयी बात। कुछ करना नहीं
है। सहज हो गये कि सब हो गया।
राम जी, भले आए
ऐसे ही आधी की ओट में चले आए!
बिन बुलाए!
आए, पधारी!
सिर आंखों पर बंदना सकासे!
ऐसे ही एक दिन डोलता हुआ आ धमकूगा मैं
तुम्हारे दरबार में
औचक क्या ले सकोगे अपनी करुणा के पसार में?
राम जी, भले आए!
ऐसे ही आधी की ओट में चले आए!
बिन बुलाए!
आए, पधारो!
सिर आंखों पर बंदना सकासे!
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राह में एक सितारा भी बहुत होता है
आंखवाले को इशारा भी बहुत होता है
बीच मझधार में जाने की जरूरत क्या है
डूबना हो तो किनारा भी बहुत होता है
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निहारिका से द्वंद्व कर रविकर—निकर विजयी बने
प्रत्यूष के पीयूष—कण पहुंचा रहे तुम तक घने
कोमल मलय के स्पर्श —सौरभ से हिमानी से सने
दुलरा तुम्हें जाते, जगाते, कूजते तरु के तने
भोले कुसुम, भूले कुसुम, जो आज भी जागे न तुम
तो और जागोगे भला किस जागरण— क्षण में कुसुम?
यह स्वप्न टूटेगा न क्या, भोले कुसुम, भूले कुसुम!
लो तितलियां मचली चलीं सतरंग चीनांशुक पहन
छवि की पुतलियों—सी मचलती, मदभरे जिनके नयन
हर एक कलि के कान में कहती हुई :’जागो बहन!'
जागो बहन, दिन चढ़ गया, खोलो नयन, धो लो बदन,
अनमोल रे यह क्षण, न खोने का शयन बनमय कुसुम,
कब और जागोगे भला, भोले कुसुम, भूले कुसुम!
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