बाहर वह खोया पाया मैला उजला
दिन—दिन होता जाता वयस्क
दिन—दिन धुंधलाती आंखों से
सुस्पष्ट देखता जाता था
पहचान रहा था रूप
पा रहा वाणी और बूझता शब्द
पर दिन—दिन अधिकाधिक हकलाता था
दिन—पर—दिन उसकी घिग्घी बंधती जाती थी
धुंध से ढंकी हुई, कितनी गहरी वापिका तुम्हारी
कितनी लघु अंजुलि हमारी!
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ऐ कल्पना के दर्पण!
तन—मन तुझ पर अर्पण
जब होंगे तेरे दर्शन
धड़कन हरसूं होगी।
कोयल की तरह मेरा
चंचल मन मचलेगा
जब आम के पेड़ों पर
हरसूं कू—कू होगी।
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गर जाम नहीं है हाथों में
आंखों से पिला दे, काफी है।
अब जीने की है फिक्र किसे
तू मुझे मिटा दे, काफी है।
अब डोर तेरे ही हाथों में
जी भर के नचा दे, काफी है।
ना होश रहे बाकी, ऐसा
पागल ही बना दे, काफी है।
अब अमृत की है चाह किसे
तू जहर पिला दे, काफी है। '
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