Saturday, 30 May 2015

अष्‍टावक्र: महागीता--(भाग--4) प्रवचन--1

मैं तमोमयज्योति की पर प्यास मुझको
है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको
स्नेह की दो बूंद भी तो तुम गिराओ
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ
कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूगा
कल प्रलय की आधियों से मैं लडूंगा
किंतु मुझको आज आंचल से बचाओ
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ
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कूटस्थ रहने से कुछ नहीं बनेगान तटस्थ रहने से
समष्टि को जीने सेसहने सेजीता है आदमी
अकेला तो सूरज भी नहीं है
उससे ज्यादा अकेलापन तुम चाहोगे?
मृत्यु तक तटस्थता निभाओगे?
सिमट कर बहते हुए जीवन में उतरो
घाट से हाट तक,
हाट से घाट तक
आओ —जाओ
तूफान के बीच गाओ
मत बैठो ऐसे चुपचाप तट पर
तटस्थ हो या कूटस्थ होइससे फर्क नहीं पड़ता।
सिमट कर बहते हुए जीवन में उतरो
घाट से हाट तक,
हाट से घाट तक
आओ—जाओ
तूफान के बीच गाओ
मत बैठो ऐसे चुपचाप तट पर!
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चांदनी फैली गगन मेंचाह मन में
दिवस में सबके लिए बस एक जग है
रात में हरेक की दुनिया अलग है
कल्पना करने लगी अब राह मन में
चांदनी फैली गगन मेंचाह मन में
मैं बताऊं शक्ति है कितनी पगों में
मैं बताऊं नाप क्या सकता डगों में
पंथ में कुछ ध्येय मेरे तुम धरो तो!
आज आंखों में प्रतीक्षा फिर भरो तो!
चीर वन घन भेद मरु जलहीन आऊं
सात सागर सामने होंतैर जाऊं
तुम तनिक संकेत नयनों से करो तो!
आज आंखों में प्रतीक्षा फिर भरो तो!
राह अपनी मैं स्वयं पहच्चान लूंगा
लालिमा उठती किधर सेज्यान लूंगा
कालिमा मेरे दृगों की तुम हरी तो!
आज आंखों में प्रतीक्षा फिर भरी तो!
थोड़ी—सी आंख की कालिख हट जाये तो तुम साक्षी दो गये।
तुम तनिक संकेत नयनों से करो तो!
आज आंखों में प्रतीक्षा फिर भरो तो!
प्रभु की जरा प्रतीक्षा शुरू हो जाये तो तुम साक्षी हो गये।
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जहां से खुद को जुदा देखते हैं
खुदी को मिटा कर खुदा देखते हैं
फटी चिदिया पहने भूखे भिखारी
फकत जानते हैं तेरी इतजारी
बिलखते हुए भी अलख जग रहा है
चिदानंद का ध्यान—सा लग रहा है
तेरी बाट देखूं चने तो का जा
हैं फैले हुए परउन्हें कर लगा जा
मैं तेरा ही हूं इसकी साखी दिला जा
जरा चुहचुहाहट तो सुनने को आ जा
जो यूं तू इछुडूने —बिछुड़ने लगेगा
तो पिंजरे का पंछी भी उड़ने लगेगा
जरा—जरा.......! अभी पिंजरे के एकदम बाहर होने की जरूरत भी नहीं है। जरा पिंजरे में ही तडुफड़ाने लगो।
जो यूं तू इछुड़ने—बिछुड़ने लगेगा
तो पिंजरे का पंछी भी उड़ने लगेगा
हैं फैले हुए परउन्हें कर लगा जा
मैं तेरा ही हूं इसकी साखी दिला जा
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'बात भी आपके आगे न जुबां से निकली
लीजिए आई हूं सोच के क्या —क्या दिल में!
मेरे कहने से न आमेरे बुलाने से न आ
लेकिन इन अश्कों की तौहीन तो न कर!'
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जान कर अनजान बन जा
पूछ मत आराध्य कैसा
जबकि पूजा— भाव उमड़ा
मृत्तिका के पिंड से कह दे
कि तू भगवान बन जा!
जान कर अनजान बन जा!
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तृप्ति क्या होगी अधर के रस—कणों से
खींच लो तुम प्राण ही इन चुंबनों से
प्यार के क्षण में मरण भी तो मधुर है
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है।
फिर विकल हैं प्राण मेरे!
तोड़ दो यह क्षितिजमैं भी देख लूं उस ओर क्या है?
जा रहे जिस पंथ से युग—कल्पउसका छोर क्या है?
फिर विकल हैं प्राण मेरे!
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जब मैंने मरकत पत्रों को पीराते मुरझाते देखा
जब मैंने पतझर को बरबस मधुबन में धंस जाते देखा
तब अपनी सूखी लतिका पर पछताते मुझको लाज लगी
जब मैंने तरु—कंकालों को अपने से भय खाते देखा
पर ऐसी एक बयार बहीकुछ ऐसा जादू—सा उतरा
जिससे विरवों में पात लगेजिससे अंतर में आह जगी
सहसा विरवों में पात लगेसहसा विरही की आग लगी
पर ऐसी एक बयार बहीकुछ ऐसा जादू—सा उतरा
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