आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
आज क्यों चांद—सितारों पै नजर जायेगी
क्या रखा है जो बहारों पै नजर जायेगी
तू कि खुद माहवशाने—चमन अन्दाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
आज क्यों चांद—सितारों पै नजर जायेगी
क्या रखा है जो बहारों पै नजर जायेगी
तू कि खुद माहवशाने—चमन अन्दाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
एक तुगियाने—तरब है मेरे काशाने में
एक सनम आ ही गया दिल के सनमखाने में
शहर में एक कयामत तेरे इकदाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
एक सनम आ ही गया दिल के सनमखाने में
शहर में एक कयामत तेरे इकदाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
दिल की धड़कन को इशारे की जरूरत न रही
किसी रंगीन नजारे की जरूरत न रही
रंग नजरों में तेरे आरिजे—गुलफाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
किसी रंगीन नजारे की जरूरत न रही
रंग नजरों में तेरे आरिजे—गुलफाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
तेरी पलकों के झपकने की अदा काफी है
तेरी झुकती हुई आंखों का नशा काफी है
अब न शीशे से गरज है न मै—ए—जाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
तेरी झुकती हुई आंखों का नशा काफी है
अब न शीशे से गरज है न मै—ए—जाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
दिल में उतरी चली जाती हैं निगाहें तेरी
मुझको हल्के में लिये लेती हैं बाहें तेरी
इक उजाला—सा मेरे गिर्द सरे—शाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
मुझको हल्के में लिये लेती हैं बाहें तेरी
इक उजाला—सा मेरे गिर्द सरे—शाम से है
आज की रात तो मनसूब तेरे नाम से है
मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--17
मैं कोई शेर न भूले से कहूंगा तुझ पर
फायदा क्या जो मुकम्मिल तेरी तहसीन न हो
कैसे अल्फाज के सांचे में ढलेगा ये जमाल
सोचता हूं कि तेरे हुस्न की तौहीन न हो
फायदा क्या जो मुकम्मिल तेरी तहसीन न हो
कैसे अल्फाज के सांचे में ढलेगा ये जमाल
सोचता हूं कि तेरे हुस्न की तौहीन न हो
हर मुसब्बर ने तेरा नक्श बनाया लेकिन
कोई भी नक्श तेरा अक्से—बदन बन न सका
लब— ओ—रुखसार में क्या—क्या न हसी रंग भरे
पर बनाये हुए फूलों से चमन बन न सका
कोई भी नक्श तेरा अक्से—बदन बन न सका
लब— ओ—रुखसार में क्या—क्या न हसी रंग भरे
पर बनाये हुए फूलों से चमन बन न सका
हर सनमसाज ने मरमर से तराशा तुझको
पर ये पिघली हुई रफ्तार कहां से लाता
तेरे पैरों में तो पाजेब पहना दी लेकिन—
तेरी पाजेब की झंकार कहां से लाता
पर ये पिघली हुई रफ्तार कहां से लाता
तेरे पैरों में तो पाजेब पहना दी लेकिन—
तेरी पाजेब की झंकार कहां से लाता
तेरे शाया कोई पैरायए—इजहांर नहीं
सिर्फ विजदान में इक रंग—सा भर सकती है
मैंने सोचा है तो महसूस किया है इतना
तू निगाहों से फकत दिल में उतर सकती है
सिर्फ विजदान में इक रंग—सा भर सकती है
मैंने सोचा है तो महसूस किया है इतना
तू निगाहों से फकत दिल में उतर सकती है
मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--17
यह शायरी शायरी नहीं है—
रजज की आवाज,
बादलों की गरज है
तूफान की सदा है!
कि जिसको सुनकर
पहाड़ आते हैं सब्ज माथों पर बर्फ की कलगिया लगाये,
धुओं के बालों में सुर्ख शोलो के हार गूंथे।
समंदर आते हैं झाग की झांझने बजाते
घटाएं आती हैं बिजलियों पर सवार होकर
यह शायरी शायरी नहीं है।
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रजज की आवाज,
बादलों की गरज है
तूफान की सदा है!
कि जिसको सुनकर
पहाड़ आते हैं सब्ज माथों पर बर्फ की कलगिया लगाये,
धुओं के बालों में सुर्ख शोलो के हार गूंथे।
समंदर आते हैं झाग की झांझने बजाते
घटाएं आती हैं बिजलियों पर सवार होकर
यह शायरी शायरी नहीं है।
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कम—निगाहों को मैं अंदाजे—नजर देता हूं
बे—सहर रात को भी रंगे—सहर देता हूं
बदगुमां मुझसे खिजां हैं तो खफा वीराने हैं
आमदे—फसले—बहारा की खबर देता हूं
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कम—निगाहों को मैं अंदाजे—नजर देता हूं
बे—सहर रात को भी रंगे—सहर देता हूं
बदगुमां मुझसे खिजां हैं तो खफा वीराने हैं
आमदे—फसले—बहारा की खबर देता हूं
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इश्क का नगमा जुनू के साज पर गाते हैं हम
अपने गम की आंच से पत्थर को पिघलाते हैं हम
जिंदगी को हमसे बढ़कर कौन कर सकता है प्यार
और अगर मरने पर आ जायें तो मर जाते हैं हम
दफ्न होकर खाक में भी दफ्न रह सकते नहीं
लाल—ओ—गुल बन के दीवारों पर छा जाते हैं हम
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मैं रात की गोद में
सितारे नहीं,
शरारे बखेरता हूं!
सहर के दिल में—
जो अपने अश्कों से
बी रहा हूं
बगावतें हैं।
अपने गम की आंच से पत्थर को पिघलाते हैं हम
जिंदगी को हमसे बढ़कर कौन कर सकता है प्यार
और अगर मरने पर आ जायें तो मर जाते हैं हम
दफ्न होकर खाक में भी दफ्न रह सकते नहीं
लाल—ओ—गुल बन के दीवारों पर छा जाते हैं हम
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मैं रात की गोद में
सितारे नहीं,
शरारे बखेरता हूं!
सहर के दिल में—
जो अपने अश्कों से
बी रहा हूं
बगावतें हैं।
फकीर बगावतें बोते हैं। उनके बीज बगावतों के बीज हैं। वे क्रांतिया उगाते हैं। वे क्रांतियों की फसलें काटते हैं। इसलिए जो तैयार हो सिर कटाने को, वही सिद्धों के साथ हो सकता है, जो मरने को राजी हो, जो अपनी सूली को अपने कंधे पर ले कर आये!
मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--17
मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--17
व्यर्थ ही प्रतीक्षा में रात भर खुला था जो
एक द्वार कलिका का, एक द्वार मेरा था।
एक द्वार कलिका का, एक द्वार मेरा था।
रात भर बही पुरवा, रात भर खिले तारे,
रात भर रहे बहते अश्रु दर्द के मारे!
रात भर गया गूंथा, पर बिखर गया था जो,
एक हार अंबर का, एक हार मेरा था।
व्यर्थ ही प्रतीक्षा में रात भर खुला था जो
एक द्वार कलिका का, एक द्वार मेरा था।
रात भर रहे बहते अश्रु दर्द के मारे!
रात भर गया गूंथा, पर बिखर गया था जो,
एक हार अंबर का, एक हार मेरा था।
व्यर्थ ही प्रतीक्षा में रात भर खुला था जो
एक द्वार कलिका का, एक द्वार मेरा था।
कूक—कूक उठती थी कुंज में विकल कोयल,
झूम—झूम उठता था गंध का चपल आंचल।
मौन थे खड़े पर्वत, मौन प्राण की बस्ती,
एक भार धरती का, एक भार मेरा था।
व्यर्थ ही प्रतीक्षा में रात भर खुला था जो
एक द्वार कलिका का, एक द्वार मेरा था।
झूम—झूम उठता था गंध का चपल आंचल।
मौन थे खड़े पर्वत, मौन प्राण की बस्ती,
एक भार धरती का, एक भार मेरा था।
व्यर्थ ही प्रतीक्षा में रात भर खुला था जो
एक द्वार कलिका का, एक द्वार मेरा था।
क्या कहूं मधुर कितना राग का जमाना था,
हर घड़ी नये स्वर थे, हर घड़ी तराना था।
दर्द को समेटे जो चुप रहा उनींदा—सा,
एक तार वीणा का, एक तार मेरा था।
व्यर्थ ही प्रतीक्षा में रात भर खुला था जो,
एक द्वार कलिका का, एक द्वार मेरा था।
हर घड़ी नये स्वर थे, हर घड़ी तराना था।
दर्द को समेटे जो चुप रहा उनींदा—सा,
एक तार वीणा का, एक तार मेरा था।
व्यर्थ ही प्रतीक्षा में रात भर खुला था जो,
एक द्वार कलिका का, एक द्वार मेरा था।
फूल पर किरण लिखती रूप की कहानी थी,
चांद की जवानी पर कल बड़ी जवानी थी।
चूर—चूर टकराकर जो हुआ किनारों से
एक प्यार सागर का, एक प्यार मेरा था!
व्यर्थ ही प्रतीक्षा में रात भर खुला था जो,
एक द्वार कलिका का, एक द्वार मेरा था!
चांद की जवानी पर कल बड़ी जवानी थी।
चूर—चूर टकराकर जो हुआ किनारों से
एक प्यार सागर का, एक प्यार मेरा था!
व्यर्थ ही प्रतीक्षा में रात भर खुला था जो,
एक द्वार कलिका का, एक द्वार मेरा था!
मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--17
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ज्योति के पायल बजे, जागो प्रभात!
शब्द—पंछी मुक्त हो स्वर—पंख उकसाने लगे,
प्राण में नव चेतना के गान लहराने लगे,
स्वप्न के चिर सत्य की बजने लगीं शहनाइयां,
प्यार के विश्वास—पंथी लो निलय आने लगे।
खोलती पांखें कली सुधि की मदिर अभिजात!
ज्योति के पायल बजे, जागो प्रभात!
प्राण में नव चेतना के गान लहराने लगे,
स्वप्न के चिर सत्य की बजने लगीं शहनाइयां,
प्यार के विश्वास—पंथी लो निलय आने लगे।
खोलती पांखें कली सुधि की मदिर अभिजात!
ज्योति के पायल बजे, जागो प्रभात!
फूल की मुस्कान पर संगीत सा जुटने लगा,
सब कहीं कुमकुम पवन की सांस पर लुटने लगा,
आ रही है भैरवी की ध्वनि गगन के छोर से,
आज धरती से तिमिर का राज लो उठने लगा।
तुम अभी सोये, उषा आयी लिये सौगात!
ज्योति के पायल बजे, जागो प्रभात!
सब कहीं कुमकुम पवन की सांस पर लुटने लगा,
आ रही है भैरवी की ध्वनि गगन के छोर से,
आज धरती से तिमिर का राज लो उठने लगा।
तुम अभी सोये, उषा आयी लिये सौगात!
ज्योति के पायल बजे, जागो प्रभात!
ज्वार की फेनिल तरंगों पर जलधि मुसका रहा,
बांसुरी पर दूर मांझी नवप्रभाती गा रहा,
वह अकेली झील नीली ले रही अंगड़ाइयां,
देवदारु प्रमत्त जिसको चूमने सा जा रहा।
लहर पर बिछले कि जिसके मसृण चिकने पात!
ज्योति के पायल बजे, जागो प्रभात!
मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--17
बांसुरी पर दूर मांझी नवप्रभाती गा रहा,
वह अकेली झील नीली ले रही अंगड़ाइयां,
देवदारु प्रमत्त जिसको चूमने सा जा रहा।
लहर पर बिछले कि जिसके मसृण चिकने पात!
ज्योति के पायल बजे, जागो प्रभात!
मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--17
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