Sunday, 31 May 2015

अष्‍टावक्र: महागीता (भाग--5) प्रवचन-11

धूप का यह गुनगुना स्पर्श
चौकड़ी भरते किरन के इंगुरी छोने
फिर लगे तृण—पालकी मृदु ओस की ढोने
पर्त कोहरे की हटा दुर्धर्ष
धूप का खोल वातायन धुआंते कक्ष में झांका
भोर ने फिर सूर्य नीलाकाश में टीका
सुर्ख मूंगे की तरह आकर्ष
धूप का यह गुनगुना स्पर्श
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