थे यहां मधुकलश सारे विष भरे
असलियत मालूम हुई जब पी लिये
देह पर तो लग गये टीके मगर
रह गये सब घाव मन के अनसिये
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हम निजी घर में किरायेदार से रहते रहे
दर्द दिल का बस दरो —दीवार से कहते रहे
दूर तक फैला हुआ एक रेत का सैलाब—सा
जिस तरफ सागर समझ जलधार से बहते रहे
यह जिसको तुम संसार कह रहे हो और बहे जा रहे
हो—यह पाना, वह पाना, मिलता कभी किसी को कुछ यहां! सब मृगमरीचिका है।
दूर तक फैला हुआ एक रेत का सैलाब सा
जिस तरफ सागर समझ जलधार से बहते रहे
और इस सागर में, रेत के सागर में तुम छोटी सी जलधार की तरह अपने ध्यान को
बहाए जा रहे हो कि यहां कहीं सागर होगा, मिल जाएगा, तृप्ति होगी, मिलन होगा। खो जाओगे इस मरुस्थल में! यहां कोई
मरूद्यान भी नहीं है।
हम निजी घर में किरायेदार से रहते रहे
दर्द दिल का बस दरो—दीवार से कहते रहे
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