Sunday, 31 May 2015

अष्‍टावक्र: महागीता (भाग--5) प्रवचन--8

साधोहम चौसर की गोटी !'
कोई गोरी कोई काली
कोई बड़ी कोई छोटी!

इस खाने से उस खाने तक
चमराने से ठकुराने तक
खेले काल खिलाड़ी
सबकी गहे हाथ में चोटी!
साधोहम चौसर की गोटी!

कोई पिट कर कोई बस कर
कोई रोकर कोई हंस कर
सभी खेलें ढीठ खेल यह
चाहे मिले न रोटी!

कभी पट हर कौड़ी आवे
कभी अचानक पी पड़ जावे
नीड़ बनाए एक फेंक
तो दूजी हरे लंगोटी!

एकेक दांव कि एकेक फंदा
एकेक घर है गोरखधंधा
हर तकदीर यहां है जैसे
कूकर के मुंह बोटी!

बिछी बिछात जमा जब तक फड़
तब तक ही यह सारी भगदड़
फिर तो एक खलीता
सबकी बांधे गठरी मोटी!
साधोहम चौसर की गोटी!
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क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या सुरूप था कि देख आईना सिहर उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नजर उठा
एक दिन मगर यहां ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे वक्त से पिटे-पिटे
सांस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे
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प्यार अगर थामता न पथ में
उंगली इस बीमार उमर की
हर पीड़ा वेश्या बन जाती
हर आंसू -आवारा होता
मन तो मौसम-सा चंचल है
सबका होकर भी न किसी का
अभी सुबह का अभी शाम का
अभी रुदन का अभी हंसी का

जीवन क्या हैएक बात जो
इतनी सिर्फ समझ में आए
कहे इसे वह भी पछताए
सुने इसे वह भी पछताए

मगर यही अनबूझ पहेली
शिशु-सी सरल-सहज बन जाती
अगर तर्क को छोड़भावना
के संग किया गुजारा होता

हर घर आंगन रंगमंच है
और हरेक सास कठपुतली
प्यार सिर्फ वह डोर कि जिस पर
नाचे बादल नाचे बिजली

तुम चाहे विश्वास न लाओ
लेकिन मैं तो यही कहूंगा
प्यार न होता धरती पर तो
सारा जग बंजारा होता

प्यार अगर थामता न पथ में
उंगली इस बीमार उमर की
हर पीड़ा वेश्या बन जाती
हर आंसू आवारा होता
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हे री सखि बतलाओ मुझे
पी की मनभावन की बतिया
गुणहीन मलिन शरीर मेरा
कुछ हार-सिंगार किया ही नहीं
नहीं जानूं मैं प्रेम की बात कोई
मेरी कांपत है डर से छतिया
पिया अंदर महल विराज रहे
घर-काजन मैं अटकाय रही
नहीं एक घड़ी-पत्न संग किया
बिरथा सब बीत गई रतिया
पिया सोवत ऊंची अटारिन में
जहां जीव परीत की गम ही नहीं
किस मारग होय के जाय मिलूं
किस भाति बनाए लिखूं पतिया
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तन से तो सब भांति बिलग तुम
लेकिन मन से दूर नहीं हो
हाथ न परसे चरण सलोने
पांव न जानी गैल तुम्हारी
दृगन न देखी बाकी चितवन
अधर न चूमी लट कजरारी
चिकने खुदरे गोरे काले
'छलकन ओ बेछलकन वाले
घट को तो तुम निपट निगुण पर
पनिहारिन से दूर नहीं हो
तन से तो सब भांति बिलग तुम
लेकिन मन से दूर नहीं हो
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हर दर्पण तेरा दर्पण है
हर चितवन तेरी चितवन है
मैं किसी नयन का नीर बनूं
तुझको ही अर्ध्य चढ़ाता हूं
काले तन या गोरे तन की
मैले मन या उजले मन की
चांदी सोने या चंदन की
औगुन गुन की या निर्गुन की
पावन हो या कि अपावन हो
भावन हो या कि अभावन हो
पूरब की हो या पश्चिम की
उत्तर की हो या दक्षिण की
हर मूरत तेरी मूरत है
हर सूरत तेरी सूरत है
मैं चाहे जिसकी मांग भरूं
तेरा ही व्याह रचाता हूं
हर दर्पण तेरा दर्पण है
हर चितवन तेरी चितवन है
मैं किसी नयन का नीर बनूं
तुझको ही अर्ध्य चढ़ाता हूं

 आज इतना ही।

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