प्राण में जब क्लांति, जीवन में थकन जब व्यापती है।
स्वप्न सारे टूट कर उड्डीण हो जाते
रूख के पत्ते यथा पतझाडु में
स्वप्न मेरे भी चतुर्दिक टूट कर उड़ने लगे हैं
और मैं दुबली भुजाओं पर उठाये
व्योम का विस्तार, एकाकी खड़ा हूं
इस भरोसे में नहीं कि कोई बड़ा पुरुषार्थ है यह
किंतु केवल इसलिए अब और चारा ही नहीं है।
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अहले—दिल और भी हैं अहले—वफा और भी हैं
एक हम ही नहीं, दुनिया से खफा और भी हैं।
हम पे ही खत्म नहीं मसलके शोरिदासरी
चाक दिल और भी हैं चाक कबा और भी हैं।
सर सलामत है तो क्या संगे —मलामत की कमी
जान बाकी है तो पैकाने—कजा और भी हैं।
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दिशाएं बंद हैं
आकाश उड़ता—फड़फड़ाता है
वहीं फिर लौट आता है।
आंधिया कल जो इधर से जा रही थीं
जा नहीं पायीं
हांफती है बंद बोझिल कुहासे—सी
एक परछाईं
दिशाएं बंद हैं
दीवार को उस पार से कोई हिलाता है
थका फिर लौट आता है
धूप जलता हुआ सागर द्वीप छाहों के
सरक जाते पिघल कर
मछलियां जैसे मरे पल—छिन
उतर आ रोज जाते हैं सतह पर
जाल कंधों पर धरे
दिन सुबह आता है
हर शाम खाली लौट जाता है
दिशाएं बंद हैं
आकाश उड़ता—फड़फड़ाता है
वहीं फिर लौट आता है
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सूझ का साथी मौम दीप मेरा!
कितना बेबस है यह, जीवन का रस है यह
क्षण— क्षण पल—पल बल—बल छू रहा सवेरा
अपना अस्तित्व भूल सूरज को टेरा
मौम दीप मेरा!
कितना बेबस दीखा, इसने मिटना सीखा
रक्त—रक्त बिंदु—बिंदु झर रहा प्रकाश सिंधु
कोटि—कोटि बना व्याप्त छोटा—सा घेरा
मौम दीप मेरा!
जी से लग जेब बैठ, तंबल पर जमा पैठ
जब चाहूं जाग उठे, जब चाहूं सो जावे
पीड़ा में साथ रहे, लीला में खो जावे
मौम दीप मेरा!
सूझ का साथी मौम दीप मेरा!
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मौन यामिनी मुखरित मेरी
मधुर तुम्हारी पग पायल सी
इस पायल की लय में मेरी
श्वासों ने निज लय पहचानी
इस पायल की ध्वनि में मेरे
प्राणों ने अपनी ध्वनि जानी
ताल दे रहा रोम—रोम है
तन का उसकी रुनक—झुनक पर
इस अधीर मंजीर मुखर से
आज बांध लो मेरी वाणी
मौन यामिनी मुखरित मेरी
मधुर तुम्हारी पग पायल से
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तेरे रूप की धूप उजागर पनघट पनघट
छलके रस की गागर पनघट पनघट
तेरी आशाएं बसती हैं बस्ती बस्ती
तेरी मस्ती सागर सागर पनघट पनघट
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फगुनाये क्षण में अनगायी गजल उगी
बौराये मन में गीतों की फसल उगी
खुलते भिनसारे बनजारे सपन हुए
नयनों की भाषा अनयारे नयन हुए
श्याम साथ राधा दोपहरी सांझ हुई
अब न रही बाधा, हुई हुई छुई मुई
बौराये मन में गीतों की फसल उगी।
जब तुम करीब—करीब मस्ती में पागल होते हो तभी
गीतों की फसल उगती है।
फगुनाये क्षण में अनगायी गजल उगी
जो तुमने अभी तक गायी नहीं, वैसी गजल प्रतीक्षा कर रही है। जो गीत तुमने
अभी गुनगुनाया नहीं, वह तुम्हारे बीज में पड़ा है, फूटना चाहता है, तड़प रहा है। उसे मौका दो। अगर मेरे साथ, मेरे संग बैठ तुम थोड़ा नाच लो, गुनगुना लो, तुम थोड़े डोल लो...।
श्याम साथ राधा दोपहरी सांझ हुई
अब न रही बाधा, हुई हुई छुई मुई।
किसी क्षण जब तुम मेरे साथ डोल उठते हो, जिन दूर की ऊंचाइयों पर मैं तुम्हें उड़ा ले
चलना
चाहता हूं कभी तुम क्षण भर को भी पंख मार लेते हो, उसी क्षण आंसू बहते हैं। उसी क्षण तुम्हारे
भीतर कोई मधुर स्वाद फैलने लगता है। तुम्हारे कंठ में कोई तृप्ति आने लगती है। कहो
इसे प्रेम का क्षण, ध्यान का क्षण—स्व ही बात को
कहने के दो ढंग हैं।
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कैसी है पहचान तुम्हारी
राह मूलने पर मिलते हो!
कैसी है पहचान तुम्हारी
राह मूलने पर मिलते हो!
पथरा चलीं पुतलियां, मैंने
विविध धुनों में कितना गाया!
दायें बायें ऊपर नीचे
दूर—पास तुमको कब पाया!
धन्य कुसुम पाषाणों पर ही
तुम खिलते हो तो खिलते हो
कैसी है पहचान तुम्हारी
राह मूलने पर मिलते हो!
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रच सकते हैं अच्युत ही महा रास
बंधी हुई है उनके ही स्थिर से गोपिकाओं की
स्मृति
गूंजता है रागिनियों के वैविध्य में उनका ही
ओंकार
व्यक्त है उनकी ही लीला में अव्यक्त ऋतंभरा।
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क्या मेरा है जो आज तुम्हें दे डालूं!
मिट्टी की अंजलि में मैंने जोड़ा स्नेह तुम्हारा
बाती की छाती दे तुमने मेरा भाग्य संवारा
करूं आरती तो भी दिखते हैं वरदान तुम्हारे
अपने प्राणों के दीप कहां जो बालू!
क्या मेरा है जो आज तुम्हें दे डालूं!
छंदों में जो लय लहराती वह पदचाप तुम्हारी
पायल की रुन—झुन पर मेरा राग मुखर बलिहारी
शब्दों में जो भाव मचलते उन पर क्या वश मेरा
अपने को ही बहलाना है तो गा लूं!
क्या मेरा है जो आज तुम्हें दे डालूं!
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