Friday, 29 May 2015

अष्‍टावक्र: महागीता--(भाग--3) प्रवचन--10

मांगती हैं भूखी इंद्रियाँ
भूखी इंद्रियों से भीख
मान लिया है स्खलन
को ही तृप्ति का क्षण!
नहीं होने देता विमुक्त
इस मरीचिका से अघोरी मन
बदल—बदल कर मुखौटा
ठगता है चेतना का चिंतन
होते ही पटाक्षेपबिखर जाएगी
अनमोल पंचभूतो की भीड़।
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लहर सागर का नहीं श्रृंगार
उसकी विकलता है।
गंध कलिका का नहीं उदगार
उसकी विकलता है।
कूक कोयल की नहीं मनुहार
उसकी विकलता है।
गान गायक का नहीं व्यापार
उसकी विकलता है।
राग वीणा की नहीं झंकार
उसकी विकलता है।
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हम भी सुकरात हैं अहदे—नौ के
तस्नालब ही न मर जाएं यारो
जहर हो या मय—आतशीं हो
कोई जामे—शहादत तो आए।
कोई मरने का मौका तो आए। हिम्मतवर खोजी तो कहता हैं.
हम भी सुकरात हैं अहदे —नौ के
हम भी सत्य के खोजी हैं सुकरात जैसे। अगर जहर पीने से मिलता हो सत्यतो हम तैयार हैं। मय— आतशीं पीने से मिलता हो तो हम तैयार हैं। विष पीने से मिलता हो या शराब पीने से मिलता होहम तैयार हैं।
कोई जामे—शहादत तो आए।
कोई शहीद होने कामिटने काकुर्बान होने का मौका तो आए।
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बाहर तो वसंत और आएगा नहीं
मन रेभीतर कोई वसंत पैदा कर!
वसंत यानी मौसम और मिजाज के बीच समरसता।
निदाग हो तब भी
फूलों के लिए रोना नहीं।
पक्षी सारे उड़ गए
अब डालियां सूनी हैं
यह सोच कर
ग्लानि में खोना नहीं।
हर मौसम में
नीरव और निश्चित रहना
वसंत की नदी की भांति
मंद—मंद बहना!
वसंत यानी मौसम और मिजाज के बीच समरसता।
शांति का क्या अर्थ हैशांति का अर्थ है. तुम्हारे और अस्तित्व के बीच समरसता। न मैं रहान तू रहादोनों जुड़ गए और एक हो गए। अब तुम्हें कोन विचलित करेगा?
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टहलना छोड़ दूं
यह हो सकता है
लेकिन टहलूं
और जमीन से पांव न लगें
यह अनहोनी बात है।
पानी से दूर रहूं
यह संभव है
लेकिन पानी में तैरें
और वस्त्र न भीगें,
यह करिश्मा कोन कर सकता है!
अगर यह कमजोरी है
तो इसका राज क्या है?
अगर यह बीमारी है
तो इसका इलाज क्या है?
तब भी तेरी महिमा अपार है।
तू चाहे
तो यह असमर्थता भी
हर सकता है।
इसलिए तो ऐसे लोग हैं
जो पांव छुलाए बिना
जमीन पर चलते हैं
और आग में
खड़े होकर भी नहीं जलते हैं।
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पत्थर के फर्श कगारों में,
सीखो की कठिन कतारों में,
खंभोंलोहों के द्वारों में,
इन तारों मेंदीवारों में,
कुंडीतालेसंतरियों में,
इन पहरों की हुंकारों में,
गोली की इन बौछारों में,
इन वज बरसती मारों में,


इन सुर शरमीलेगुण—गर्वीले
कष्ट सहीले वीरों में,
जिस ओर लखूं तुम ही
तुम हो प्यारे इन विविध शरीरों में!
जिस ओर लखूं तुम ही तुम हो
प्यारे इन विविध शरीरों में।

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 उमड़ता मेरे दुर्गो में
बरसता घनश्याम में जो
अधर में मेरे खिला
नव इंद्रधनु अभिराम में जो
बोलता मुझमें वही
      जग मौन में जिसको बुलाता
जो न हो कर भी बना सीमा क्षितिज
वही रिक्त हूं मैं
विरति में भी
चिर विरत की बन गई
अनुरक्ति हूं मैं
बोलता मुझमें वही
जग मौन में जिसको बुलाता!
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इश्क का जौके —नजारा मुफ्त में बदनाम है
हुस्न खुद बेताब है जलवे दिखाने के लिए।
यह जो फूलों में से झांक रहा हैयह परमात्मा उत्सुक है जलवे दिखाने के लिए। यह जो किसी स्त्री के चेहरे से सुंदर हो कर प्रगट हुआ है—
हुस्न खुद बेताब है जलवे दिखाने के लिए।
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मिट्टी में गड़ा हुआ मैं तुम्हारा मूल हूं
तुम मेरे फूल हो जो आकाश में खिला है
मिट्टी से जो रस मैं खींचता हूं
वह फूल में लाली बन कर छाता है
और तुम जो सौरभ बनाते हो
यहां नीचे भी उसका सुवास उगता है
अदेह की विभा देह में झलक मारती है,
और देहक ज्योति अदेह की आरती उतारती है
द्वैताद्वैत से परे मेरी यह विनम्र टेक है
प्रभु! मैं और तुम दोनों एक हैं।
वह जो फूला खिला है ऊपर शिखर पर उसमेंऔर वह जो जड़ छिपी है गहरे अंधकार में भूमि केउसमें भेद नहींदोनों एक हैं। बुद्ध में और तुममेंअज्ञानी में और ज्ञानी मेंअसाधु और साधु में कोई मौलिक अंतर नहीं हैकोई आधारभूत अंतर नहीं है। होगा संत खिला हुआ फूल जैसाऊपर शिखर पर आकाश में प्रगटऔर होगा असाधु दूर अंधेरे में भूइम के दबा हुआ जड़ जैसा...
मिट्टी में गड़ा हुआ मैं तुम्हारा मूल हूं
तुम मेरे फूल हो जो आकाश में खिला है
मिट्टी से जो रस मैं खींचता हूं
वह फूल में लाली बन कर छाता है
और तुम जो सौरभ बनाते हो
यहां नीचे भी उसका सुवास आता है
अदेह की विभा देह में झलक मारती है,
और देहक ज्योति अदेह की आरती उतारती है।
द्वैताद्वैत से परे मेरी यह विनम्र टेक है,
प्रभु! मैं और तुम दोनों एक हैं।
इस संसार में तुम दो को भूलना शुरू करो, 'मैं'— 'तू को भूलना शुरू करो और जैसे भी बनेजहां से भी बनेजहां से भी थोड़ी झलक उठ सके एक की—उस झलक को पकड़ो। वे ही झलकें सघनीभूत हो—हो कर एक दिन समाधि बन जाती हैं।
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जिंदगी न जन्म के साथ पैदा होती है,
न मृत्यु के साथ मरती है
जन्म ले कर वह जिसे खोजती है
मर कर भी उसी की तलाश करती है
और ईश्वर आसानी से हमारी पकड़ में नहीं आता
उसकी कृपा यह है
कि वह हमें जन्म देता और फिर मारता है
जन्म और मरण दोनों खराद के चक्के हैं
ईश्वर हमें तराश—तराश कर संवारता है
और जब हम पूरी तरह संवर जाते हैं
ईश्वर अपने— आपको हमें सौंप देता है
हमारी मुक्तिया केंद्र से अलग नहीं रहती
ईश्वर या तो उनमें विलय होता है
या उन्हें अपने में लीन कर लेता है।
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इतना रोया हूं गम—ए—दोस्त जरा—सा हंस कर
मुस्कुराते हुए लमहात से जी डरता है।
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रचना का दर्द छटपटाता है
ईश्वर बराबर अवतार लेने को अकुलाता है
दूसरों से मुझे जो कुछ कहना है
वह बात प्रभु पहले मुझसे कहते हैं
करुण—काव्य लिखते समय
कवि पीछे रोता है,
भगवान पहले रोते हैं।
अगर मुझे तुम्हें रुलाना हो तो मुझे तुमसे पहले रोना होगा। और मुझे अगर तुम्हें हंसाना हो तो मेरे प्राणों में हंसी चाहिएअन्यथा मैं तुम्हें हंसा भी न सकूंगा। लेकिन तुम्हारे और मेरे ढंग अलग होंगेयह सच है। कभी मैं ठीक तुम्हारे जैसा था। और कभी तुम ठीक मेरे जैसे भी हो जाओगेऐसी आशा है। इस आशा के साथ तुम्हें इस शिविर से विदा करता हूं।

हरि ओंम तत्सत्।


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