Friday, 29 May 2015

अष्‍टावक्र: महागीता--(भाग--3) प्रवचन--7

नहीं थी कबीर की चादर में कहीं कोई गांठ
खुले थे चारों छोरफिर भी संध्या— भोर
टटोलती रही भक्तों की भीड़ कि कहीं होगा
जरूर कहीं होगा चिंतामणि—रतन
नहीं तो बाबा काहे को करते इतना जतन!
कबीर ने कहा है न :
खूब जतन कर ओढी चदरियाझीनी—झीनी बीनी
खूब जतन कर ओढ़ी चदरियाज्यों की त्यों धरि दीन्ही।
तो भक्तों को लगा रहा होगा कि इतने जतन से ओढ़ रहे हैं चादरबाबा इतना जतन कर रहे हैं—मतलबकहीं कुछ बांध—बूंध लिया हैकोई रतन!
नहीं थी कबीर की चादर में कहीं कोई गांठ
खुले थे चारों छोरफिर भी संध्या— भोर
टटोलती रही भक्तों की भीड़
कि होगा कहीं चिंतामणि रतन
नहीं तो बाबा काहे को करते इतना जतन!
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संयोगवियोगप्रतिक्रियाएं
नहीं है उनका अपना कोई अस्तित्व
संवेदनामरीचिका पुदगल की
आत्मा का गुण निर्वेद है।
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तब रोक न पाया मैं आंसू

जिसके पीछे पागल हो कर
मैं दौड़ा अपने जीवन भर
जब मृग—जल में परिवर्तित हो
मुझ पर मेरा अरमान हंसा,
जिसमें अपने प्राणों को भर
कर देना चाहा अजर— अमर
जब विस्मृति के पीछे छिपकर
मुझ पर मेरा मधु —गान हंसा;

मेरे पूजन— आराधन को
मेरे संपूर्ण समर्पण को
जब मेरी कमजोरी कह कर
मेरा पूजित पाषाण हंसा।
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खड़े हैं दिग्भ्रमित से कब से कुछ प्रश्न
दुखतें हैं बेचारों के पांव
याद है इन्हें पूरबपश्चिमदक्षिण
भूल गए उत्तर का गांव।
प्रश्न तो तुम्हारे खड़े हैं जन्मों सेउनके पैर भी दुखने लगे खड़े—खड़े।
याद है इन्हें पूरबपश्चिमदक्षिण
भूल गए उत्तर का गांव।
बस एक जगह भूल गए हैं—उत्तर का गांव। उत्तर तुम्हारे भीतर है। ये पूर्ब जातेपश्चिम जातेदक्षिण जाते — भीतर कभी नहीं जाते। जहां से प्रश्न उठा हैवहीं उत्तर हैवहीं जाओ।
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उतर कर गहरे में बन गया तट
तल ऊपर उद्वेलित लहरेंनीचे शात जल
छूट गये शंख—सीपविदुम दीप
हाथ लगे मुक्ता फल
जैसे—जैसे भीतर गहरे जाओगेहाथ लगेंगे मुक्ता—फल।
आकाश का मौन ही ध्वनि है।
ध्वनि की गति ही शब्द है
शब्द की रति ही स्वर है
स्वर की यति ही भास्वर है
भास्वर की प्रतीति ही ईश्वर है।
आकाश का मौन। मौन को पकड़ो। जैसा आकाश का मौन बाहर है वैसा ही आकाश का मौन भीतर है। जैसा एक आकाश बाहर है वैसा भीतर है।
आकाश का मौन ही ध्वनि है।
उसी को हमने ओंकार कहानाद कहाअनाहत नाद कहा।
आकाश का मौन ही ध्वनि है।
सुनो मौन को!
ध्वनि की गति ही शब्द है
शब्द की रति ही स्वर है
स्वर की यति ही भास्वर है
भास्वर की प्रतीति ही ईश्वर है।
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लोग एक बीमारी से दूसरी बीमारी पर चले जाते हैं। बीमारी से ऐसा मोह है कि बीमारी छूटती ही नहीं।
शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में
थी मुझे घेरे बनी जो कल निराशा
आज आशंका बनीकैसा तमाशा!
एक से हैं एक बढ़ कर पर चुभन में
शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में
स्वप्न में उलझा हुआ रहता सदा मन
एक ही उसका मुझे मालूम कारण
विश्व सपना सच नहीं करता किसी का
प्यार से प्रियजी नहीं भरता किसी का।
तो पहले सांसारिक चीजों से प्यार चलता हैफिर किसी तरह वहा से ऊबेहटेतो परलोक से प्यार बन जाता है।
प्यार से प्रियजी नहीं भरता किसी का
शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में।
पहले तुम किसी को पाना चाहतेतब परेशानीफिर पा लेतेतब परेशानी।
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कथ्य का प्रेय अकथ
पंथ का ध्येय अपथ
कहने की सारी चेष्टा उसके लिए है जो कहा नहीं जा सकता।
कथ्य का प्रेय अकथ
उल्टा लगता हैलेकिन कहने की सारी चेष्टा उसी के लिए है जिसे कहने का कोई उपाय नहीं है। पंथ का ध्येय अपथ
और सारे पंथ इसीलिए हैं कि एक दिन ऐसी घड़ी आ जाए कि कोई पंथ न रह जाए। अपथ! अपथचारी स्वच्छंद है। फिर कोई मार्ग नहीं हैफिर कोई पथ नहीं। पाथलेस पाथ!
सभी मार्ग इसीलिए आदमी स्वीकार करता है कि किसी दिन मार्ग—मुक्त हो जाए।
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वर्ष नवहर्ष नवजीवन—उत्कर्ष नव
नव उमंगनव तरंगजीवन का नव प्रसंग
नवल चालनवल राहजीवन का नव प्रवाह
गीत नवलप्रीत नवलजीवन की रीति नवल
जीवन की नीति नवलजीवन की जीत नवल!
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अमल धवल गिरि के शिखरों पर
बादल को घिरते देखा है!
छोटे छोटे मोती जैसे
अतिशय शीतल वारि—कणों को
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है!
तुंग हिमाचल के कंधों पर
छोटी—बड़ी कई झीलों के
श्यामल शीतल अमल सलिल में
समतल देशों से आ— आ कर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त—मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है!
जैसे दूर से दूर देशों से उड़ा हुआ हंस आएमानसरोवर पहुंचेतिरने लगे मानसरोवर परस्वच्छ धवल—ऐसी ही साक्षी की दशा है।
शरीर—घाट! मन—सरोवर! और वह साक्षी—हंसपरमहंस!
अमल धवल गिरि के शिखरों पर
बादल को घिरते देखा है!
छोटे छोटे मोती जैसे
अतिशय शीतल वारि—कणों को
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है!
तुंग हिमाचल के कंधों पर
छोटी—बड़ी कई झीलों के
श्यामल शीतल अमल सलिल में
समतल देशों से आ— आ कर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त—मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है!
ऐसा ही परमहंस तुम्हारे भीतर विराजमान है। जागो तो मिले। और कोई उपाय मिलने का नहीं है। और जिसे मिल गया उसे सब मिल गया। और जिसे यह परमहंस—दशा न मिलीवह कुछ भी पा लेउसका सब पाया व्यर्थ है।

 हरि ओंम तत्सत्!

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