नहीं थी कबीर की चादर में कहीं कोई गांठ
खुले थे चारों छोर, फिर भी संध्या— भोर
टटोलती रही भक्तों की भीड़ कि कहीं होगा
जरूर कहीं होगा चिंतामणि—रतन
नहीं तो बाबा काहे को करते इतना जतन!
कबीर ने कहा है न :
खूब जतन कर ओढी चदरिया, झीनी—झीनी बीनी
खूब जतन कर ओढ़ी चदरिया, ज्यों की त्यों धरि दीन्ही।
तो भक्तों को लगा रहा होगा कि इतने जतन से ओढ़
रहे हैं चादर, बाबा इतना जतन कर रहे
हैं—मतलब? कहीं कुछ बांध—बूंध लिया है? कोई रतन!
नहीं थी कबीर की चादर में कहीं कोई गांठ
खुले थे चारों छोर, फिर भी संध्या— भोर
टटोलती रही भक्तों की भीड़
कि होगा कहीं चिंतामणि रतन
नहीं तो बाबा काहे को करते इतना जतन!
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संयोग, वियोग, प्रतिक्रियाएं
नहीं है उनका अपना कोई अस्तित्व
संवेदना, मरीचिका पुदगल की
आत्मा का गुण निर्वेद है।
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तब रोक न पाया मैं आंसू
जिसके पीछे पागल हो कर
मैं दौड़ा अपने जीवन भर
जब मृग—जल में परिवर्तित हो
मुझ पर मेरा अरमान हंसा,
जिसमें अपने प्राणों को भर
कर देना चाहा अजर— अमर
जब विस्मृति के पीछे छिपकर
मुझ पर मेरा मधु —गान हंसा;
मेरे पूजन— आराधन को
मेरे संपूर्ण समर्पण को
जब मेरी कमजोरी कह कर
मेरा पूजित पाषाण हंसा।
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खड़े हैं दिग्भ्रमित से कब से कुछ प्रश्न
दुखतें हैं बेचारों के पांव
याद है इन्हें पूरब, पश्चिम, दक्षिण
भूल गए उत्तर का गांव।
प्रश्न तो तुम्हारे खड़े हैं जन्मों से, उनके पैर भी दुखने लगे खड़े—खड़े।
याद है इन्हें पूरब, पश्चिम, दक्षिण
भूल गए उत्तर का गांव।
बस एक जगह भूल गए हैं—उत्तर का गांव। उत्तर
तुम्हारे भीतर है। ये पूर्ब जाते, पश्चिम जाते, दक्षिण जाते — भीतर कभी नहीं जाते। जहां से
प्रश्न उठा है, वहीं उत्तर है, वहीं जाओ।
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उतर कर गहरे में बन गया तट
तल ऊपर उद्वेलित लहरें, नीचे शात जल
छूट गये शंख—सीप, विदुम दीप
हाथ लगे मुक्ता फल
जैसे—जैसे भीतर गहरे जाओगे, हाथ लगेंगे मुक्ता—फल।
आकाश का मौन ही ध्वनि है।
ध्वनि की गति ही शब्द है
शब्द की रति ही स्वर है
स्वर की यति ही भास्वर है
भास्वर की प्रतीति ही ईश्वर है।
आकाश का मौन। मौन को पकड़ो। जैसा आकाश का मौन
बाहर है वैसा ही आकाश का मौन भीतर है। जैसा एक आकाश बाहर है वैसा भीतर है।
आकाश का मौन ही ध्वनि है।
उसी को हमने ओंकार कहा, नाद कहा, अनाहत नाद कहा।
आकाश का मौन ही ध्वनि है।
सुनो मौन को!
ध्वनि की गति ही शब्द है
शब्द की रति ही स्वर है
स्वर की यति ही भास्वर है
भास्वर की प्रतीति ही ईश्वर है।
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लोग एक बीमारी से दूसरी बीमारी पर चले जाते
हैं। बीमारी से ऐसा मोह है कि बीमारी छूटती ही नहीं।
शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में
थी मुझे घेरे बनी जो कल निराशा
आज आशंका बनी, कैसा तमाशा!
एक से हैं एक बढ़ कर पर चुभन में
शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में
स्वप्न में उलझा हुआ रहता सदा मन
एक ही उसका मुझे मालूम कारण
विश्व सपना सच नहीं करता किसी का
प्यार से प्रिय, जी नहीं भरता किसी का।
तो पहले सांसारिक चीजों से प्यार चलता है, फिर किसी तरह वहा से ऊबे, हटे, तो परलोक से प्यार बन जाता है।
प्यार से प्रिय, जी नहीं भरता किसी का
शूल तो जैसे विरह वैसे मिलन में।
पहले तुम किसी को पाना चाहते, तब परेशानी; फिर पा लेते, तब परेशानी।
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कथ्य का प्रेय अकथ
पंथ का ध्येय अपथ
कहने की सारी चेष्टा उसके लिए है जो कहा नहीं
जा सकता।
कथ्य का प्रेय अकथ
उल्टा लगता है; लेकिन कहने की सारी चेष्टा उसी के लिए है जिसे कहने का कोई
उपाय नहीं है। पंथ का ध्येय अपथ
और सारे पंथ इसीलिए हैं कि एक दिन ऐसी घड़ी आ
जाए कि कोई पंथ न रह जाए। अपथ! अपथचारी स्वच्छंद है। फिर कोई मार्ग नहीं है, फिर कोई पथ नहीं। पाथलेस पाथ!
सभी मार्ग इसीलिए आदमी स्वीकार करता है कि किसी
दिन मार्ग—मुक्त हो जाए।
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वर्ष नव, हर्ष नव, जीवन—उत्कर्ष नव
नव उमंग, नव तरंग, जीवन का नव प्रसंग
नवल चाल, नवल राह, जीवन का नव प्रवाह
गीत नवल, प्रीत नवल, जीवन की रीति नवल
जीवन की नीति नवल, जीवन की जीत नवल!
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अमल धवल गिरि के शिखरों पर
बादल को घिरते देखा है!
छोटे छोटे मोती जैसे
अतिशय शीतल वारि—कणों को
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है!
तुंग हिमाचल के कंधों पर
छोटी—बड़ी कई झीलों के
श्यामल शीतल अमल सलिल में
समतल देशों से आ— आ कर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त—मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है!
जैसे दूर से दूर देशों से उड़ा हुआ हंस आए, मानसरोवर पहुंचे, तिरने लगे मानसरोवर पर, स्वच्छ धवल—ऐसी ही साक्षी की दशा है।
शरीर—घाट! मन—सरोवर! और वह साक्षी—हंस, परमहंस!
अमल धवल गिरि के शिखरों पर
बादल को घिरते देखा है!
छोटे छोटे मोती जैसे
अतिशय शीतल वारि—कणों को
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है!
तुंग हिमाचल के कंधों पर
छोटी—बड़ी कई झीलों के
श्यामल शीतल अमल सलिल में
समतल देशों से आ— आ कर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त—मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है!
ऐसा ही परमहंस तुम्हारे भीतर विराजमान है। जागो
तो मिले। और कोई उपाय मिलने का नहीं है। और जिसे मिल गया उसे सब मिल गया। और जिसे
यह परमहंस—दशा न मिली, वह कुछ भी पा ले, उसका सब पाया व्यर्थ है।
हरि ओंम तत्सत्!
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