हर जगह जीवन विकल है।
तृषित मरुथल की कहानी
हो चुकी जग में पुरानी
किंतु वारिधि के हृदय की
प्यास उतनी ही अटल है।
हर जगह जीवन विकल है।
रो रहा विरही अकेला
देख तन का मिलन मेला
पर जगत में दो हृदय की
मिलन—आशा विफल है।
हर जगह जीवन विकल है।
अनुभवी इसको बताएं
व्यर्थ मत मुझसे छिपाएं
प्रेयसी के अद्यर—मधु में भी
मिला कितना गरल है।
हर जगह जीवन विकल है।
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मैं तो बहुत दिनों पर चेता।
जम कर ऊबा
श्रम कर डूबा
सागर को खेना था मुझको
रहा शिखर को खेता
मैं तो बहुत दिनों पर चेता।
थी मति मारी
था भ्रम भारी
ऊपर अंबर गर्दीला था
नीचे भंवर लपेटा
मैं तो बहुत दिनों पर चेता।
यह किसका स्वर
भीतर बाहर
कौन निराशा, कुंठित घड़ियों में
मेरी सुधि लेता
मैं तो बहुत दिनों पर चेता।
मत पछता रे
खेता जा रे
अंतिम क्षण में चेत जाए जो
वह भी शतवर चेता
मैं तो बहुत दिनों पर चेता।
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नदी रुकती नहीं है
लाख चाहे उसे बांधो,
ओढ़ कर शैवाल
वह चलती रहेगी।
धूप की हलकी छुअन भी
तोड़ देने को बहुत है
लहरियों का हिमाच्छादित मौन
सोन की बालू नहीं यह
शुद्ध जल है
तलहटी पर रोकने वाला
इसे है कौन?
हवा मरती नहीं है
लाख चाहे तुम
उसे तोड़ो—मरोड़ो
खुशबुओं के साथ
वह बहती रहेगी।
आंधियों का आचरण
या घना कोहरा जलजला का
काटता कब हरेपन का शीश
खेत बेहड़ या कि आंगन
जहां होगी उगी तुलसी
सिर्फ देगी मुक्ति का आशीष
शिखा मिटती नहीं है
लाख अंधे पंख से
उसको बुझाओ
अंचलों की ओट वह
जलती रहेगी।
नदी रुकती नहीं है
लाख चाहे उसे बांधो
ओढ़ कर शैवाल
वह चलती रहेगी।
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अंधेरों पली है यह धरती कि जिसमें
दिवस पर भी छाई हुई यामिनी है
मेरा शरीर धरती निवासी है तो क्या?
मेरी आत्मा तो गगन—गामिनी है!
शरीर होगा धरती पर, आत्मा तो गगन—गामिनी है। आत्मा तो गगन है, आत्मा तो आकाश जैसी है —असीम!
जनक कहते हैं. मैं इस बोध में ही स्थित हो गया
हूं।
चाहे सारा जीवन गुजरे जहरीलों के संग
नेकों पर तो चढ़ न सकेगा सोहबते—बद का रंग
जहर सरायत हो न सका महफूज रहा यह पेडू
गो चंदन के गिर्द हमेशा लिपटे रहे भुजंग।
चंदन के वृक्ष पर सर्प लिपटे हैं, तो भी चंदन विषाक्त नहीं हो गया है।
गो चंदन के गिर्द हमेशा लिपटे रहे भुजंग।
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कण—कण करके दुनिया जोड़ी
कितनी भुक्खड़ चाह निगोड़ी
सब के प्रति मन में कमजोरी
किससे नाता तोडूं रे!
अंगड—खंगड मोह सभी से
क्या बांधू? क्या छोडूं रे!
क्या लादूं क्या छोडूं रे!
झोपड़ियां कुछ पीठ लिए हैं
कुछ महलों को पीठ दिए हैं
भोगी त्यागी, त्यागी भोगी
दो में किससे होडू रे!
अंगड—खंगड मोह सभी से,
क्या बीजू क्या छोडूं रे!
क्या लादूं क्या छोडूं रे!
तिनका साथ नहीं चलता है
बोझा फिर भी सिर खलता है
तन की आंखें मोड़ी, कैसे
मन की आंखें मोडूं रे!
अंगड—खंगड मोह सभी से,
क्या बांधू क्या छोडूं रे!
क्या लादूं क्या छोडूं रे!
अपना कह कर हाथ लगाऊ,
कैसा रखवारा कहलाऊं!
जिसका सारा माल—मत्ता है
उससे नाता जोडू रे!
अंगड—खंगड मोह सभी से
क्या बांधू क्या छोडूं रे!
क्या लादूं क्या छोडूं रे!
कुछ लोग हैं, जो इसी चितना में जीवन बिताते हैं : क्या छोड़े? क्या पकड़े?
जनक कहते हैं : न पकड़ो, न छोड़ो। क्योंकि दोनों में ही पकड़ है। जब तुम
कुछ छोड़ते हो, तब भी तुम कुछ पकड़ने के लिए
ही छोड़ते हो। कोई कहता है, धन छोड़ेंगे, तो स्वर्ग मिलेगा। यह तो छोड़ना एक तरफ है, पकड़ना दूसरी तरफ हो गया। यह तो लोभ का ही फैलाव
हुआ। यह तो गणित पुराना ही रहा; इसमें कुछ नवीन नहीं है।
क्या छोड़े, क्या पकड़े!
जनक कहते हैं: न छोड़ो, न पकड़ो—जागो! अचुनाव! कृष्णमूर्ति जिसे कहते
हैं : च्चायसलेस अवेयरनेस! निर्विकल्प बोध! न यह पकड़ता हूं, न यह छोड़ता हूं। छोड़ता—पकड़ता ही नहीं।
'चित्त
का स्वीकार और वर्जन है।’
दोनों व्यर्थ!
'उन
सबसे उत्पन्न हुए अपने विकल्प को देख कर, मैं इन सबसे मुक्त हुआ, अपने में स्थित हूं।’ छोड़ने —पकड़ने में बड़ी चालबाजी है।
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उड़ जा इस बस्ती से पंछी
उड़ जा भोले पंछी।
घर—घर है दुखों का डेरा
सूना है यह रैन—बसेरा
छाया है घनघोर अंधेरा
दूर अभी है सुख का सवेरा
उड़ जा इस बस्ती से पंछी उड़ जा भोले पंछी!
इस बस्ती के रहने वाले
फुरकत का गम सहने वाले
दुख—सागर में
बहने वाले
राम—कहानी
कहने वाले
उड़ जा इस
बस्ती से पंछी उड़ जा भोले पंछी!
जीवन गुजरा रोते — धोते,
आहें भरते, जगते —सोते,
हाल हुआ है होते —होते
फूट रहे हैं खून के सोते
उड़ जा इस बस्ती से पंछी उड़ जा भोले पंछी।
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