लो एक क्षण और बीता
हम हारे, युग जीता
होंठों के सारे गम
आंखों में कैद
चांदनी के सिर का
एक बाल और हुआ सफेद
धूप की नजर का
एक अंग और बढ़ गया
सपने के पैरों में
एक कांटा और गड़ गया
रोते रहे राम
अतीत में समा गई सीता
खतम हुई रामायण
अब शुरू करो गीता।
लो एक क्षण और बीता
हम हारे, युग जीता।
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कहता हूं. रे मन, अब नीरव हो जा
ससर सर्प के सदृश्य
जहां है उत्स वहीं पर सो जा
साखी बन कर देख
देह का धर्म सहज चलने दे
जो तेरा गंतव्य
वहा तक चल कर कोन गया है
गल जाने दे स्वर्ण
रूप में उसे स्वयं ढलने दे।
जाना कहीं है भी नहीं। कब कोन गया है! अगर तुम
सहज साक्षी बन जाओ तो स्वर्ण खुद ढल जाता है, आभूषण बन जाते हैं। परमात्मा खुद ढल आता है, सरक आता है और तुम दिव्य हो जाते हो, तुम बुद्ध हो जाते हो।
कहता हूं रे मन अब नीरव हो जा
ससर सर्प के सदृश्य
जहां है उत्स वहीं पर सो जा।
और उत्स तो तुम्हारा चैतन्य है। उत्स तो
तुम्हारा जागरण भाव है। आये हो तुम गहन जागृति से, उतरे हो परमात्मा से। वहीं है तुम्हारी जड़ों का फैलाव।
जहां है उत्स वहीं पर सो जा
साखी बन कर देख
देह का धर्म सहज चलने दे।
साखी तुम बन जाओ। ये दो शब्द समझ लेने जैसे
हैं. साखी और सखी। बस दो ही मार्ग हैं—या तो सखी बन जाओ, वह प्रेम का मार्ग है; या साखी बन जाओ, साक्षी बन जाओ, वह ज्ञान का मार्ग है। और जरा ही सा फर्क है सखी और साखी
में, एक मात्रा का फर्क है, कुछ बड़ा फर्क नहीं।
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आ कर चले गए
क्षण बार—बार
हो कर उदार
कब कितने छले गए!
बजी खिड़कियां
हिली पखुडिया
कलियों पर कुछ छाये
मैंने देखा
सूर्य किरण से
दौड़ द्वार तक आए
किंतु लगे दरवाजे देखे
ठिठक गए वे मौन
गुपचुप के संवादों
जैसे लौट गए
वे कोन!
सूरज ढले गए
आ कर चले गए
वे खा कर चोट गए
वे आए लौट गए
क्षण बार—बार
होकर उदार
कब कितने छले गए!
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देखा है भीड़ को
ढोते हुए अनुशासन का बोझ
उछालते हुए अर्थहीन नारे
लड़ते हुए दूसरों का युद्ध
खोदते हुए अपनी कब्रें
पर नहीं सुना कभी
तोड़ लिया हो किसी
भीड़ ने बलात
व्यक्ति की अंतश्चेतना में खिला
अनुभूति का अम्लान पारिजात!
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हम कहते हैं बुरा न मानो
यौवन मधुर सुनहली छाया
सपना है, जादू है, छल है ऐसा
पानी पर मिटती—बनती रेखा—सा
मिट—मिट कर दुनिया देखे रोज तमाशा
यह गुदगुदी यही बीमारी
मन हलसावे, छीजे काया
हम कहते हैं बुरा न मानो
यौवन मधुर सुनहली छाया।
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घबराओ मत। स्वीकार करो। स्वीकार से ही विसर्जन
है।
मूल्य—मुक्त कर ले चल मुइाको तू अमूल्य की ओर
संशय—निश्चय दोनों दुविधा, इनसे परे विकास
मृगमरीचिका क्षितिज, स्वयं की सीमा है आकाश
समय समय है भोले दृग की छलना संध्या— भोर
पूर्ण नहीं है वस्तु, भाव में केवल उसका भास
बांध सके चिन्मय को, ऐसा किस भाषा का पाश!
कुंभ कूप तक पहुंचे इतना कर सकती बस डोर
कंचन नहीं, अकिंचन की ही दुर्लभ
है पहचान
पंचभूत तो नग्न, तत्व ने पहन लिया परिधान
छुड़ा तुला की कारा, पकडूं मैं अमूल्य का छोर
मूल्य—मुक्त कर ले चल मुझको तू अमूल्य की
ओर
मूल्य आदमी के बनाये हैं; अमूल्य परमात्मा का है। सब तुलायें—तराजू हमारे
हैं; परमात्मा अनतौला है, अमित; कोई माप नही—अमाप!
जो भी जाना जा सकता है वह सीमित है—जानने से ही
सीमित हो गया। क्षुद्र ही जाना जा सकता है, विराट नहीं।
बांध सके चिन्मय को, ऐसा किस भाषा का पाश!
शब्द में, भाषा में, सिद्धात में, बंधेगा नहीं...।
कुंभ कूप तक पहुंचे इतना कर सकती बस डोर
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