Wednesday, 27 May 2015

प्यार जब मझधार से हो तो किनारा कौन मांगे?
बाहुओं में भर रहा हूं मैं हिलोरों की रवानी
है हिलोरों से बहुत मिलती हुई मेरी जवानी
जन्म है उठती लहर सा, है मरण गिरती लहर सा
जिंदगी है जन्म से ले कर मरण तक की कहानी।
चूमने दो ओंठ लहरों के मुझे निश्शंक हो कर
डूबना ही इष्ट हो जब, तो सहारा कौन मांगे?
प्यार जब मझधार से हो तो किनारा कौन मागे?
श्याम मेघों से घिरा नक्षत्र विहगों का बसेरा
आधियों ने डाल रखा है क्षितिज पर घोर घेरा
जिस तरह से भग्न अंतर में उमड़ती है निराशा
ठीक वैसे ही उमड़ता आ रहा नभ में अंधेरा
जब कि चाहें प्राण बरसाती अंधेरे में भटकना
पथ—प्रदर्शन के लिए तो ध्रुव सितारा कौन मांगे?
प्यार जब मझधार से हो तो किनारा कौन मांगे?
जिंदगी का दीप लहरों पर सदा बहता रहा है
निज हृदय से ही हृदय की बात यह कहता रहा है
डगमगाती ज्योति में विश्वास जीवन के संजोये
मौन जल कर स्नेह का अभिशाप यह सहता रहा है
जब मरण की आधियों से प्यार इसको हो गया है
ओट पाने के लिए आचल तुम्हारा कौन मांगे?
प्यार जब मझधार से हो तो किनारा कौन मांगे?
यही मैं सिखा रहा हूं यही मेरी देशना है—मझधार ही सब कुछ है। कर लो प्यार मझधार से। यात्रा सब कुछ है। जी लो इस क्षण को भरपूर, समग्रता से। न कहीं पहुंचना है, न कहीं कुछ होना है। सब कुछ जैसा है, पूर्ण है।
मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--14
संगीत उमड़ने दो स्वर्णिम तारों में,
खो जाने दो दुनिया इन झनकारों में।
झूमें जाओ, क्षण भर भी मत यह पूछो,
छवि की पायल का नाद चलेगा कब तक?
मत पूछो, यह उन्माद चलेगा कब तक?
नभ में चांदी का ज्वार उमड़ता देखो,
मेघों का शशि पर प्यार उमड़ता देखो,
मत पूछो मुग्ध चकोरी के नयनों से,
विस्तृत अंबर में चांद चलेगा कब तक?
मत पूछो, यह उन्माद चलेगा कब तक?
साकीबाला की मस्त निगाहें देखो,
बेसुध पीनेवालों की चाहें देखो,
मधु पीनेवालों की मादक महफिल में—
मत पूछो, हालावाद चलेगा कब तक?
मत पूछो, यह उन्माद चलेगा कब तक?
शृंगार तुम्हें खलता है तो खलने दो,
अभिसार तुम्हें खलता है तो खलने दो;
अपराध समझते रहो प्यार को, लेकिन,
मत पूछो, यह अपराध चलेगा कब तक?
मत पूछो, यह उन्माद चलेगा कब तक?
मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--14
बीन को नवीन तार चाहिये!
था जिन्हें रखा बहुत संवार कर,
था जिन्हें रखा बहुत दुलार कर,
रंग एक बार के उतर गये,
फूल एक बार के बिखर गये।
बाग चुप रहा समय निहारकर,
किंतु, कह उठी पिकी पुकार कर
इक बहार रूठ—रूठ जाये तो
बाग को नई बहार चाहिये!
एक तार टूट—टूट जाये तो
बीन को नवीन तार चाहिये!
ताज आग का संवारता रहा,
पंथ भोर का निहारता रहा;
किंतु दीप की लगन बिखर गई,
स्नेह चुक गया शिखा सिहर गई!
दीप त्रस्त हो लगा गुहारने,
किंतु मृत्तिका लगी पुकारने—
एक स्नेह—कोष रीत जाये तो
स्नेह की नवीन धार चाहिये!
एक तार टूट—टूट जाये तो
बीन को नवीन तार चाहिये!
उड़ चला विहंग तृण लिये हुए,
प्यार का अकंप प्रण लिये हुए;
किंतु, क्रुद्ध आंधियां मचल गईं,
तृण बिखेर, नीड़ को कुचल गईं,
लुट गया विहंग, छा गई निशा,
किंतु फिर लगी पुकारने उषा—
एक नीड़ टूट—फूट जाये तो
डाल को नया सिंगार चाहिये।
एक तार टूट—टूट जाये तो
बीन को नवीन तार चाहिये!
प्राण स्वप्न—लोक में रमे रहे,
और, नींद में नयन लगे रहे! पर,
अजान ही हृदय धड़क उठा,
कांपते हुए खुले सजल पलक!
नींद ही रही न स्वप्न ही रहा,
किंतु, तप्त अश्रुधार ने कहा—
एक स्वप्न टूट—टूट जाये तो
आंख को नया खुमार चाहिये।
एक तार टूट—टूट जाये तो
बीन को नवीन तार चाहिये!
मैं तुम्हें सदा दुलारता रहा,
प्राण में बसा, संवारता रहा,
किंतु एक दिन कहार आ गये,
पालकी उठा तुम्हें लिवा गये!
हर शपथ ज्वलित अंगार हो गई,
जिंदगी असह्य भार हो गई;
जब हृदय लगा चिता संवारने,
व्योम के नखत लगे पुकारने;
एक मीत साथ छोड़ जाये तो
प्यार की नई पुकार चाहिये!
एक तार टूट—टूट जाये तो
बीन को नवीन तार चाहिये।
मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--14
मंदिर की पावन प्राचीरें जब फूट गईं,
चंदन से निर्मित देहरिया जब टूट गईं!
द्वारों पर बंदनवार सजाकर क्या होगा?
सूने मंदिर में दीप जलाकर क्या होगा?
जब भावों को कोई गुननेवाला न रहा,
जब गीतों को कोई सुननेवाला न रहा;
वीणा के टूटे तार मिलाकर क्या होगा?
सूने मंदिर में दीप जलाकर क्या होगा?
मंदिर हैं, लेकिन मंदिर की सुषमा न रही,
सिंहासन हैं, सिंहासन पर प्रतिमा न रही!
सूने आसन पर फूल चढ़ाकर क्या होगा?
सूने मंदिर में दीप जलाकर क्या होगा?
मरो हे जोगी मरो (गोरखनाथ) प्रवचन--14


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