Thursday, 28 May 2015

अष्‍टावक्र महागीता--(भाग--2) प्रवचन--8





कवि ने गीत लिखे नये—नये बार—बार
पर उसी एक विषय को देता रहा विस्तार—
जिसे कभी पूरा पकड़ पाया नहीं;
जो कभी किसी गीत में समाया नहीं
किसी एक गीत में वह अट गया दिखता
तो कवि दूसरा गीत ही क्यों लिखता?
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तेरे हुस्ने—जवाब से आई
मेरे ली सवाल की खुशबू।
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भोग रहा है हर कोई
सूरज तो इक—सा ही चमके
नाथों और अनाथों पर।
अपने— अपने कर्मों का फल
भोग रहा है हर कोई।
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दामने—दिल पे नहीं बारिशे—इल्हाम अभी
इश्क नापुख्ता अभी जच्चे दरूखाम अभी।
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सुख न सहचरीलुटेरा भी हुआ करता है,
खुशी में गम का बसेरा भी हुआ करता है।
अपनी किस्मत की स्याही को कोसने वालो,
चांद के साथ अंधेरा भी हुआ करता है।
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