मैंने तो सोचा था अपनी
सारी उमर तुझे दे दूंगा
इतनी दूर मगर थी मंजिल
चलते —चलते शाम हो गयी
निकला तो मैं था गुदड़ी में
लाल छिपाए बरन—बरन के
कुछ संग खेले थे बचपन के
कुछ संग सोये थे यौवन के
कुछ पर रीझ गयी थीं कलियां
कुछ पर झूम गयी थीं गलियां
कुछ थे रत्न अमोल हृदय के
कुछ थे नौलख हार नयन के
किंतु ठगौरी डाल गयी कुछ
ऐसी पथ की भूलभुलैया
जनम—जनम की जमा खो गयी
जुग—जुग नींद हराम हो गयी
मैंने तो सोचा था अपनी
सारी उमर तुझे दे दूंगा
इतनी दूर मगर थी मंजिल
चलते—चलते शाम हो गयी
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वह मौजे —हवादिस का थपेड़ा न रहा
कश्ती वह हुई गर्क तो बेड़ा न रहा
सारे झगड़े थे जिंदगानी के ' अनीस'
जब हम न रहे तो कुछ बखेड़ा न रहा
अलम्। हरि ओम तत्सत्।
आज इतना ही।
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