Saturday, 30 May 2015

अष्‍टावक्र:महागीता--(भाग--4) प्रवचन--8

साथ चलो तो मैं खड़ा चलने को तैयार
सन्नाटे के बीच सें—सन्नाटे के पार।
जब तुम पैदा हुएसन्नाटे से आये थे। जब तुम मृत्यु में जाओगेफिर सन्नाटे में जाओगे। झेन फकीर कहते हैं. अपने उस चेहरे को खोज लो जो जन्म के पहले तुम्हारा था और मृत्यु के बाद फिर तुम्हारा होगा। यह बीच का चेहरा उधार है। यह चेहरा तो तुम्हारे मां और पिता से मिला हैयह चेहरा तुम्हारा नहीं। यह मौलिक नहीं।
साथ चलो तो मैं खड़ा चलने को तैयार
सन्नाटे के बीच से —सन्नाटे के पार।
इसलिए समस्त धर्म सन्नाटे की साधना है—शून्य कीमौन कीध्यान की।
तुमको चिंता राह कीमुझको चिंता और
यहीं न हमको रोक ले कोई मंजर—मौर।
राह की बहुत फिक्र मत करो। सब राहें परमात्मा की तरफ जाती हैं। एक ही फिक्र करना कि रास्ते पर कोई अटकाव में अटक मत जानाकिसी पड़ाव को मंजिल मत समझ लेना। सब पहुंच जाते हैंअगर चलते रहेंअगर चलते रहें। रुके कि अटक जाते हैं। तुम कहीं भी रुकना मत—धन परपद परमोह परलोभ परराग पर। कहीं रुकना मत। चलते ही जाना। जागते ही जाना।
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चढ़ो न मन की पालकी चलो न अपनी छाव
बटमारों का देश हैनहीं सजन का गांव।
सबमें सबकी आत्मासबमें सबका योग
ऐसे भी थे दिन कभीऐसे भी थे लोग।
गोरी अपने गांव में पनपा ऐसा रोग।
हमसे परिचय पूछते हमीं हमारे लोग।

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कुछ अंधेरे रोशनी के साथ आते हैं
कुछ उजाले हैं कि साये छोड़ जाते हैं
एक वे हैं पांव कल की सीढ़ियों पर हैं
एक हम इतिहास पर जिल्दें चढ़ाते हैं
जो समय के साथ समझौता नहीं करते
एक उपजाऊ धरातल छोड़ जाते हैं
जिंदगी का अर्थ हमने यों लगाया है
हम नदी में रेत के टीले बनाते हैं
कुछ हवाएं हैं कि इतनी तेज चलती हैं
पत्थरों के आदमी भी थरथराते हैं
हम हजारों व्यक्तियों से मिल चुके होंगे
सब हथेली पर यहां सरसों उगाते हैं
यहां बड़े पागलपन में लोग उलझे हैं।
हम हजारों व्यक्तियों से मिल चुके होंगे
सब हथेली पर यहां सरसों उगाते हैं
जिंदगी का अर्थ हमने यों लगाया है
हम नदी में रेत के टीले बनाते हैं
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छोड़ आये थे जिसे हम खेत में
पक गयी होगी सुनहली धान
महकती होगी हवा घर—गांव की हर देह
और हसियों को छुआ होगा कुंआरी उंगलियों का नेह
तोड़ आये थे जहां हम बांसुरी
सिसकती होगी अकेली तान
डबडबायी आंख में घुल गया होगा छोह
खंडहर—सी याद की पुर गयी होगी
सांवली मिट्टी तहा कर खोह
जोड़ आये थे जिन्हें हम नाम से
पुल हुए होंगे अचीन्हें बाण
तोड़ आये थे जहां हम बांसुरी
सिसकती होगी अकेली तान।
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बीच जल में कंपकपाती हैं
लौह सांकल में बंधी नावें!
एक हमला रोज होता है
काठ की कमजोर पीठों पर
घेरता हर ओर से आ कर
एक अजनबी भंवर का डर
जल—महल में थरथराती हैं
पांव पायल में बंधी नावें!
नाव का तो धर्म है तिरना
है जिसे रुकना नहीं आता
रुक गयी तो कापती है खुद
चल पड़ी तो नीर थर्राता
मीन—सी अब छटपटाती हैं
जाल से जल में बंधी नावें!
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