Saturday, 30 May 2015

अष्‍टावक्र: महागीता--(भाग--4) प्रवचन--2

मैंने ऐसी दुनिया जानी।
इस जगती के रंगमंच पर
आऊं मैं कैसे क्या बन कर
जाऊं मैं कैसे क्या बन कर
सोचायत्न किया जी भरकर
किंतु कराती नियति—नटी है
मुझसे बस मनमानी।
मैंने ऐसी दुनिया जानी।
आज मिले दोयही प्रणय है
दो देहों में यही हृदय है
एक प्राण है एक श्वास है
भूल गया मैं यह अभिनय है
सबसे बढ़ कर मेरे जीवन
की थी यह नादानी।
मैंने ऐसी दुनिया जानी।

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