प्यास गहरी ही स्वयं में तृप्ति है
तृप्ति बाहर से कहीं आती नहीं।
प्रश्न का उत्तर मिलेगा तब कि जब
तुम पूछने में प्रश्न खुद बन जाओगे
और वह संगीत जन्मेगा तभी
गीत बन कर गीत जब तुम गाओगे
साधना तो सिद्धि का पर्याय ही है
सिद्धि बाहर से कहीं आती नहीं।
प्यास गहरी ही स्वयं में तृप्ति है
तृप्ति बाहर से कहीं आती नहीं।
आत्मदर्शन द्वार पूरा खोल दे
प्राप्ति की प्रेयसी उसी से आयेगी
छोड़ दे ओढ़े अहं के आवरण को
मुक्ति तेरी अकिनी हो जायेगी
तू स्वयं मंदिर स्वयं ही वंदना है
मूर्ति बाहर से कहीं आती नहीं।
प्यास गहरी ही स्वयं में तृप्ति है
तृप्ति बाहर से कहीं आती नहीं।
पूर्ण एवं शून्य में अंतर नहीं कुछ
एक ही स्थिति के प्रगट दो रूप हैं
एक ही सागर समाया है अतल में
दूर से देखो तभी दो कूप हैं
दृश्य द्रष्टा में नहीं मध्यस्थ कोई
दृष्टि बाहर से कहीं आती नहीं
प्यास गहरी ही स्वयं में तृप्ति है
तृप्ति बाहर से कहीं आती नहीं।
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भेद भाषा का है। भक्त की भाषा रसपूर्ण है।
आ मेरी आंखों की पुतली
आ मेरे जी की धड़कन
आ मेरे वृंदावन के धन
आ ब्रज—जीवन मनमोहन
आ मेरे धन, धन के बंधन
आ मेरे जन, जन की आह
आ मेरे तन, तन के पोषण
आ मेरे मन, मन की चाह!
भक्त प्रेम की भाषा बोलता है; प्रार्थनापूर्ण भाषा बोलता है।
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तो स्त्री चित्त के लिए अलग भाषा है।
इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत!
की कमल ने सूर्य—किरणों की प्रतीक्षा
ली कुमुद की चांद ने रातों परीक्षा
इस लगन को प्राण, पागलपन कहो मत!
इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत!
मेह तो प्रत्येक पावस में बरसता
पर पपीहा आ रहा युग—युग तरसता
प्यार का है, प्यास का क्रंदन कहो मत!
इस पुरातन प्रीति को नूतन कहो मत!
प्यार का है, प्यास का क्रंदन कहो मत!
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जगह—जगह से गागर फूटी
राम, कहां तक ताऊ रे!
ताऊ रे, भाई ताऊ रे!
पार करूं पनघट की दूरी
चलूं कार भर— भर कर पूरी
जब घर की चौखट पर पहुंचूं
बिलकुल छूछी पाऊं रे
जगह—जगह से गागर फूटी
राम, कहा तक ताऊ रे!
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जैसा गाना था गा न सका।
गाना था वह गायन अनुपम
क्रंदन दुनिया का जाता थम
अपने विक्षुब्ध हृदय को भी मैं
अब तक शांत बना न सका
जैसा गाना था गा न सका।
जग की आहों को उर में भर
कर देना था मुझको सस्वर
निज आहों के आशय को भी मैं
जगती को समझा न सका
जैसा गाना था गा न सका।
अहंकार को तो सदा लगता है कि आंगन टेढ़ा है और
नाचना हो नहीं पा रहा है। आंगन टेढ़ा नहीं है। अहंकार ही टेढ़ा है और नाच सकता नहीं।
गीत तो हो सकता है, अहंकार ही कंठ को दबाये है।
अहंकार ही फांसी की तरह लगा है। गीत को पैदा नहीं होने देता। कंठ से स्वर निकलने
नहीं देता। जितना ही तुम्हें लगता है मैं हूं उतने ही तुम बंधे—बंधे हो। जितना ही
तुम्हें लगेगा मैं नहीं, वही है—फिर इस 'वही' को तुम परमात्मा कहो, सत्य कहो, जो तुम्हें नाम देना हो।
भक्त कहेगा परमात्मा, शानी कहेगा सत्य। ज्ञानी
कहेगा हकीकत। लेकिन वही है। ऐसी भाव—दशा में समर्पण हो गया—बिना किसी के चरणों में
झुके और समर्पण हो गया।
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