Sunday, 31 May 2015

अष्‍टावक्र: महागीता--(भाग--6) प्रवचन--10

बचे हैं खंडहर अब तो महज दो—चार सपनों के
न सोचा इस तरह हमको करेगा बेदखल कोई
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श्यामल यमुना से केशों में गंगा करती वास है
भोगी अंचल की छाया में सिसक रहा संन्यास है
मेंहावर—मेहदीकाजल—कंघी गर्व तुझे जिन पर बड़ा
मुट्ठी भर मिट्टी ही केवल इन सबका इतिहास है
नटखट लटका नाग जिसे तुम भाल बिठाए घूमती
अरीएक दिन तुझको ही डस लेगा भरे बाजार में
कोई मोती गूंथ सुहागिन तू अपने गलहार में
मगर विदेशी रूप न बंधनेवाला है श्रृंगार में
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तुम मंद चलो!
ध्वनि के खतरों बिखरे मग में
तुम मंद चलो!
सूझों का पहन कलेवर—सा
बिकलाई का कल जेवर—सा
घुल—घुल आंखों के पानी में
फिर छलक—छलक बन छंद चलो
पर मंद चलो!
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रिंद जो जर्फ उठा लें वहीं कूजा बन जाए
जिस जगह बैठ के पी लें वहीं मयखाना बने
ऐसे पियक्कड़ बनो। ऐसे पीनेवाले बनो। मधुशालाएं खोजना बंद करो। जहां बैठ जाओ वहीं मधुशाला बने। साधारण जल भी पी लो तो अमृत हो जाएऐसे बनो। और ऐसे बनने की कला साक्षी होने की कला है।

आज इतना ही।
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