Saturday, 30 May 2015

अष्‍टावक्र: महागीता--(भाग--4) प्रवचन--4

तैर रहीं लहरें
डूब गया सागर
जाग उठे तारे
निंदियाया अंबर
पड़ी रही माटी
चली गई गागर
मुस्का दी बिजुरी
अंसुआया बादर।
मुंदे नयन—सपने
खुली दीठ दर्पण
फलित हुआ चिंतन
अंखुआया दर्शन।
मुंदे नयन—सपने,
खुली दीठ—दर्पण!
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पहली आषाढ़ की संध्या में
नीलाजन बादल बरस गये
फट गया गगन में नील मेघ
पथ की गगरी ज्यों फूट गई
बौछार ज्योति की बरस गई
झर गई बेल से किरण जुही
मधुमयी चांदनी फैल गई
किरणों के सागर बिखर गये।
जरा भीतर चलो—होती है अपूर्व वर्षा।
पहली आषाढ़ की संध्या में
नीलाजन बादल बरस गये
फट गया गगन में नील मेघ
पथ की गगरी ज्यों फूट गई
बौछार ज्योति की बरस गई
झर गई बेल से किरण जुही
मधुमयी चांदनी फैल गई
किरणों के सागर बिखर गये।
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चल पड़ी चुपचाप
सन सन सन हुआ
डालियों को यों
चितानी—सी लगी
आंख की कलियां
अरी खोलो जरा
हिल स्व—पत्तियों को
जगानी—सी लगी
पत्तियों की चुटकियां
झट दीं बजा
डालियां कुछ
ढुलमुलाने—सी लगीं
किस परम आनंद
निधि के चरण पर
विश्व सांसेंगीत
गाने—सी लगीं
जग उठा
तरु—वृंद जग
सुन घोषणा
पंछियों में चहचहाहट
मच गई
वायु का झोंका
जहां आया वहां
विश्व में क्यों
सनसनाहट मच गई!
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चिति क्षिति है अद्वैत
द्वैत में केवल उनका दर्शन
रूप—अरूप नहीं प्रतिद्वंद्वी
बंधा बिंब से दर्पण
अचिर भूत में
व्यक्त भूति में
चिर अवधूत निरंजन
शब्द—मुक्त पर शब्द—युक्त है
चिंत्य अचिंत्य चिरंतन 
सत्य शिवम् है
सत्य सुंदरम्
संज्ञा स्वयं विशेषण
व्यर्थ व्याकरण
नीत शांत का
क्या होगा संबोधन
अचिर भूत में,
व्यक्त भूति में,
चिर अवधूत निरंजन!
एक ही छिपा है!
रूप— अरूप नहीं प्रतिद्वंद्वी
बंधा बिंब से दर्पण!
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'इस संसार में भोग की इच्छा रखने वाले और मोक्ष की इच्छा रखने वाले दोनों देखे जाते हैं। लेकिन भोग और मोक्ष दोनों के प्रति निराकांक्षी कोई विरला महाशय ही है!'
मेरे साथ अत्याचार!
प्यालियां अगणित रसों की सामने रख राह रोकी,
पहुंचने दी अधर तक बस आंसुओ की धार।
मेरे साथ अत्याचार!
हर आदमी यही कह रहा है कि मेरे साथ अत्याचार हो रहा है। इतने रस पड़े हैं और मुझे भोगने का मौका नहीं। इतने रस पड़े हैं और हर जगह दीवाल खड़ी है। और संतरी खड़े हैंपहरा लगा है। हर जगह रुकांवट है।
मेरे साथ अत्याचार!
प्यालियां अगणित रसों की सामने रख राह रोकी,
पहुंचने दी अधर तक बस आंसुओ की धार।
मेरे साथ अत्याचार!
नहींकोई तुम्हारे साथ अत्याचार नहीं कर रहा है। और ऐसा भी नहीं है कि प्यालियों को तुम तक कोई नहीं पहुंचने देता। हर रस की प्याली पहुंचते—पहुंचते आंसुओ की धार हो जाती है। कोई कर नहीं रहा है। असल में प्यालियों में आंसू ही भरे हैं। दूर से तुम्हारी वासना के कारण रसधार मालूम पड़ती है। जब पास आते होअनुभव में उतरते होतो सब आंसू हो जाते हैं। अपने जीवन को जरा देखोतलाशो। तुम आंसुओ की धार ही धार पाओगे। और किसी ने कोई अत्याचार नहीं कियाकिया है तो तुमने ही किया है।
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उस दिन सपनों की झांकी में
मैं क्षण भर को मुस्काया था
मत टूटो अब तुम युग—युग
तक हे खारे आंसू की लड़ियो!
बदला ले लो सुख की घड़ियो!
मैं कंचन की जंजीर पहन
क्षण भर सपने में नाचा था
अधिकार सदा को तुम जकड़ो
मुझको लोहे की हथकडियो!
बदला ले लो सुख की घडियो!

 एक—एक छोटा—छोटा सुख कितने गहन दुख में उतार जाता है। जरा—जरा सा स्वर्ग कितने नरक दे जाता है।
उस दिन सपनों की झांकी में
मैं क्षण भर को मुस्काया था
सपनों की झांकी में!
मैं क्षण भर को मुस्काया था
मत टूटो अब तुम युग युग तक
हे खारे आंसू की लड़ियो!
बदला ले लो सुख की घड़ियो!
एक—एक सुख गहन बदला लेता मालूम पड़ता है। एक—एक सुख जब टूटता है तो गहरा विषाद  छोड़ जाता है।

मैं कंचन की जंजीर पहन
क्षण भर सपने में नाचा था
अधिकार सदा को तुम जकड़ो
मुझको लोहे की हथकडियो!
बदला ले लो सुख की घडियो!
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