Friday, 29 May 2015

अष्‍टावक्र: महागीता--(भाग--3) प्रवचन--9


सबल जब दिवसात काले
वेणु वन से घर मुझे लौटालना हो
तब गले में डाल कर प्रश्वास पाश कठोर
मुझको खींचना मत।
मुक्त धरती और मुक्त आकाश में
अभिमत विचरने
स्वेच्छया बहने पवन मेंश्वास लेने
स्वर्णिमा तप में नहाने
नील—नील तरंगिणी में पैठनेतृष्णा बुझाने
और तरु के सघन शीतल छाहरे में
अर्धमीलित नेत्र बैठे स्वप्न रचने के सुखों से
फेरना मुंह कठिन होगा।
सुखद लगता दुख संकट कष्ट भी गत।
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एक वक्त ऐसा आता है
जब सब कुछ झूठ होता जाता है
सब असत्य सब पुलपुला
सब कुछ सुनसान
मानो जो कुछ देखा थाइंद्रजाल था
मानो जो कुछ सुना थासपने की कहानी थी।
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चिर सजग आंखें उनींदीआज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना।

अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कैप हो ले
या प्रलय के आंसुओ में मौन अलसित व्योम रौले
आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया
जाग या विद्युत शिखाओं में निठुर तूफान बोले

बांध —लेंगे क्या तुझे ये मोम के बंधन सजीले?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन?
क्या डुबा देंगे तुझे ये फूल के दल ओस—गीले?

तू न अपनी छाव को अपने लिए कारा बनाना!
चिर सजग आंखें उनींदीआज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना
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प्रत्येक नया दिन नयी नाव ले आता है
लेकिन समुद्र है वहीसिंधु का तीर वही
प्रत्येक नया दिन नया घाव दे जाता है
लेकिन पीड़ा है वहीनयन का नीर वही
धधका दो सारी आग एक झोंके में
थोड़ा— थोड़ा हर रोज जलाते क्यों हो?
क्षण में जब यह हिमवान पिघल सकता है,
तिल—तिल कर मेरा उपल गलाते क्यों हो?
एक ऐसी घड़ी आती है जब तुम प्रभु से प्रार्थना करते हो कि एक क्षण में कर दो भस्मीभूत सब! क्षण में जब यह हिमवान पिघल सकता है
तिल—तिल का मेरा उपल गलाते क्यों हो?
धधका दो सारी आग एक झोंके में
थोड़ा— थोड़ा हर रोज जलाते क्यों हो?
इस घड़ी में संन्यास फलित होता है। संन्यास सदबुद्धि की घोषणा है।
'विषयों में विरसता मोक्ष हैविषयों में रस बंध है। इतना ही विज्ञान है। तू जैसा चाहे वैसा कर।’ देखते हो यह अपूर्व सूत्र!
मोक्षो विषयवैरस्य बंधो वैषयिको रस:
एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु।
'विषयों में विरसता मोक्ष है।
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मधु मिट्टी के भीड में हैअथवा स्वर्णपात्र में!
दृष्टि का यह द्वैत नहीं छल पायेगा रसना के ब्रह्म को!
द्वैत छल पाता है केवल बुद्धि कोअनुभव को नहीं।
मधु मिट्टी के भांड में हैअथवा स्वर्णपात्र में!
दृष्टि का यह द्वैत नहीं छल पायेगा रसना के ब्रह्म को!
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मन रोक न जो मुझको रखता
जीवन से निर्झर शरमाता
मेरे पथ की बाधा बन कर
कोई कब तक टिक सकता था
पर मैं खुद ऊंचे बांध उठा
अपने को उनमें भरमाता।
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जब तक मन हैतब तक अड़चन है।
रात ने चुप्पी साध ली है।
सपने शांति में समा गए हैं
अंतःकपाट आपसे— आप खुलने लगा है
देवता शायद दरवाजे पर आ गये हैं
पानी का अचल होना
मन की शांति और आभा का प्रतीक है।
पानी जब अचल होता है
उसमें आदमी का मुख दिखलाई पड़ता है
हिलते पानी का बिंब भी हिलता है।
मन जब अचल पानी के समान शात होता है
उसमें रहस्यों का रहस्य मिलता है।
मन रेअचल सरोवर के समान शांत हो जा
जग कर तूने जो भी खेल खेले
सब गलत हो गया
अब सब कुछ भूल कर
नींद में सो जा।
मन जब सो जाए तो चेतना जागे। मन जागा रहे तो चेतना सोई रहती है। मन के जागरण को अपना जागरण मत समझ लेना। मन का जागरण ही तुम्हारी नींद है। मन सो जाएसारी तरंगें खो जाएं मन कीतो मन के सो जाने पर ही तुम्हारा जागरण है। सारी बात मन की है। मन है तो संसारमन नहीं तो मोक्ष। तुम अपने को किसी भांति मन से मुक्त जान लो।

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