कंठ से मृदुगान आकर ओंठ तक
एक सिसकी प्राय होकर रह गये
दर्द से असहाय होकर रह गये
हम बड़े निरुपाय होकर रह गये
फिर वही नासूर उभरे वक्त के
एक बेबस हाय होकर रह गये
हाट खुशियों की लगायी थी यहां
अश्रु के व्यवसाय होकर रह गये
पग पहुंचते ही प्रणय—सोपान पर
स्वप्न सब कृशकाय होकर रह गये
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पनपने दे जरा आदत निगाहों को अंधेरों की
अंधेरे में अंधेरा रोशनी के काम आएगा
न जाने दर्द को दिल अब कहां आराम आएगा
जहां यह उम्र सिर रख दे कहां वह धाम आएगा
अभी कुछ और बढ़ने दे पलक पर इस समुंदर को
तभी तो मोतियों का और ज्यादा दाम आएगा
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पत्थर गड़े हुए हैं अक्षर मिटे हुए
अशांत दूरियों का अंदाज कौन दे
हर ओंठ पर जड़ी है गीतों की बेकसी
फिर पांव को थिरकने का राज कौन दे
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रात है
सो गयी दुनिया थकन से चूर
नींद में भरपूर
कुछ क्षणों को जिंदगी की विषमता
कटुता हुई है दूर
एक—सी आंखें सभी की
एक—सी है रैन
जागती आंखें उसी की
है न जिसको चैन
मैं नहीं यह चाहता सोता रहे जग
हो सदा ही रैन,
चाहता हूं किंतु,
कर्मठ—दिवस में भी नींद—सा हो चैन
सुनो फिर से—
मैं नहीं यह चाहता सोता रहे जग
हो सदा ही रैन,
चाहता हूं किंतु,
कर्मठ—दिवस में भी नींद—सा हो चैन
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सिमटकर आज बांहों में चलो आकाश तो आया
उतरकर एक टुकड़ा चांदनी का पास तो आया
ठहरते थे जहां पर आंसुओ के काफिले आकर
अचानक उन किवाड़ों के किनारे हास तो आया
अभी तक पतझरों से ही हुआ था उम्र का परिचय
चलो वातायनों से फिर मलय—वातास तो आया
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हर पत्ते पर है बूंद नयी
हर बूंद लिये प्रतिबिंब नया
प्रतिबिंब तुम्हारे अंतर का
अंकुर के उर में उतर गया
भर गयी स्नेह की मधुगगरी
गगरी के बादल बिखर गये
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बात इतनी सी कहानी हो गयी
एक चूनर और धानी हो गयी
गंध ले जाती बिना मांगे हवा
देह जब से रातरानी हो गयी
उम्र अचानक हीर हो गयी
निर्धन नजर अमीर हो गयी
एक दस्तूर किया तुमने
प्यार मशहूर किया तुमने
काच का रूप तराश दिया
एक कोहनूर किया तुमने
सेहरा को सागर
सूखी नदी को पूर किया तुमने
पिलाकर प्राणों को मदिरा
नशे में चूर किया तुमने
बात इतनी सी कहानी हो गयी
एक चूनर और धानी हो गयी
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गंध ले जाती बिना मांगे हवा
देह जब से रातरानी हो गयी
उम्र अचानक हीर हो गयी
निर्धन नजर अमीर हो गयी
एक दस्तूर किया तुमने
प्यार मशहूर किया तुमने
काच का रूप तराश दिया
एक कोहनूर किया तुमने
सेहरा को सागर
सूखी नदी को पूर किया तुमने
पिलाकर प्राणों को मदिरा
नशे में चूर किया तुमने
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धरणी पर छायी हरियाली
सजी कली—कुसुमों से डाली
मयूरी, मधुबन—मधुबन नाच
मयूरी नाच, मगन मन नाच
समीरण सौरभ सरसाता
घुमड़ घन मधुकण बरसाता
मयूरी नाच, मदिर मन नाच
मयूरी नाच, मगन मन नाच
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जिसके स्वागत में नभ ने
बरसा दी हैं जोहनियां सभी
और बड़ ने छाव बिछा डाली है वह तू ऊषा
मेरी आंखों पर तेरा स्वागत है पत्तों की
श्यामता के
द्वीप डुबोते हुए
हुस्न—हिना की गंध ज्वार सी
हरित श्वेत जो उदय हुई है
वह तू ऊषा
मेरी आंखों पर तेरा स्वागत है
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आए घनश्याम,
श्लथ हरित कंचुकी
वसुधा व्रजबालिका
उर्मिल जलधि
स्त्रस्त काची—रणित
सुरभित समीर
श्वास पुकल कदंब मल्लिका
वनवृंद वृदाधाम
आए घनश्याम,
चकित तड़ित
पीत पट
मंद रव
वेणु बरसता सरस स्वर
मंद—मंद विंदु
सस्मित राका ज्यों
खलपूर्ण इंदु
आप
गत ताप
प्रमुदित चित्त धेणु
जल तल सकल अभिराम
आए घनश्याम
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दुनिया के इस मोह जलधि में
किसके लिए उठूं उभरूं अब?
बिखर गयी धीरज की पूंजी
सुख —सपने नीलाम हो गये
शीशा बिका, किंतु रतन के
मंसूबे नाकाम हो गये
ऊपर की इस चमक —दमक में
किसके लिए दहूं निखरूं अब?
हाट—बाट की भीड छट गयी
मिला न कोई मेरा गाहक
मैं अनचाहा खड़ा रह गया
व्यर्थ गयी सब मेहनत नाहक
बीत गयी सज— धज की बेला
किसके लिए बनूं संवरूं अब?
प्रात गया दोपहरी के संग
आगे दिखती रीती संध्या
कातर प्रेत खड़े आंसू के
ज्योति हो गयी जैसे बंध्या
चला—चली की इस बेला में
किसके लिए रहूं ठहरूं अब?
देखो, खोलकर आंख देखो। जिसे तुम जीवन कहते हो, बिलकुल व्यर्थ है। जिसे तुम जीवन कहते हो, वहां जरा— भी सच नहीं। आंख भरके देखो, छूटने—छाटने की बातें न करो। पागलपन की बातें न
करो। होश संभालो, देखो गौर से। जिसने गौर से
देखा, व्यर्थ से छूट जाता है। और
जिसने गौर से नहीं देखा और वैसे ही छाती पीटता रहा कि हे प्रभु, कब छूटूगा, कब तक प्रतीक्षा, वह छाती ही पीटता रहता है।
तुम यही जन्मों—जन्मों से कर रहे हो। और अब कब
तक करते रहोगे? तुम मुझसे पूछते हो, कब तक प्रतीक्षा? मैं तुमसे पूछता हूं? कब तक प्रतीक्षा?
आज इतना ही।
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