जो जहां भी है।
समर्पित है सत्य को।
ये फूल और यह धूप
लहलहाते खेत, नदी का कूल
क्या प्रार्थनाएं नहीं हैं?
यह व्यक्तित्व निवेदित
ऊर्ध्व के प्रति क्या नहीं है?
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सांझ के धुंधलके में
एक राह खुलती है।
एक राह, जिसकी उस
छोर पर मदिम — मदिम
एक दीप जलता है,
एक लौ मचलती है।
सांझ के धुंध्ग्लके में
एक राह खुलती है।
दबे पांव आ मुझको
रोशनी बुलाती है
हाथ थाम लेती है,
साथ ले टहलती है
सांझ के धुंधलके में
एक राह खुलती है।
भीतर बाहर कुछ
जगमग — जगमग होता है
दिनभर की थकन — घुटन
वेदना पिघलती है
सांझ के धुंधलके में
एक राह खुलती है।
पद — पद होता प्रयाग,
क्षण — क्षण होता संगम,
प्रीति तुम्हारी मेरे
प्राणों में पलती है।
सांझ के धुंधलके में
एक राह खुलती है।
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मैं गाता हूं
हर गीत मधुर विश्वास लिए।
लहराती अंबर पर
तारों से टकराती,
ध्वनि पास तुम्हारे
एक समय गूंजेगी ही।
मैं रखता हूं
हर पांव सुदृढ़ विश्वास लिए।
ऊबड़—खाबड़
तम की ठोकर खाते—खाते
इनसे कोई
रक्ताभ किरण फूटेगी ही।
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तुम मेरे पथ के बीच लिए
काया भारी भरकम
क्यों जम कर बैठ गए
कुछ बोलो तो!
क्यों तुमको छूता है
मेरा संगीत नहीं?
तुम बोल नहीं सकते
तो झूमो, डोलो तो!
रागों की रोकी
जा सकती है राह नहीं,
रोड़ो, हठधर्मी छोड़ो
मुझसे मन जोडो।
तुमसे भी मधुमय
शब्द निकल कर गूंजेंगे
तुम साथ जरा
मेरी धारा के हो लो तो!
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मैं भरा, उमड़ा— भरा, उमड़ा गगन भी।
आज रिमझिम मेघ, रिमझिम हैं नयन भी।
कौन कोना है गगन का आज सूना
कौन कोना प्राण मन का आज सूना
पर बरसता मैं, बरसता है गगन भी
आज रिमझिम मेघ, रिमझिम हैं नयन भी।
मौन मुखरित हो गया, जय हो प्रणय की
पर नहीं परितृप्त है तृष्णा हृदय की।
पा चुका स्वर, आज गायन खोजता हूं
पा चुका स्वर, आज गायन खोजता हूं
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूं
पा गया तन, आज मैं मन खोजता हूं
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूं।
जो शब्द हैं, वे तो तन की भांति हैं, देह की भांति, उनके भीतर छिपा हुआ जो रस है, वह शब्दों की आत्मा है। जब तुम डोलने लगो, जब तुम्हें मेरी ध्वनि घेरने लगे, तुम मेरी ध्वनि में खोने लगो, मेरी ध्वनि जब तुम्हें नशे की तरह मदमस्त कर
दे—तब तुमने प्राण को छुआ, तब तुमने मूल स्वर को छुआ!
वेणुधारी! वेणु तुम ऐसी बजाना
विस्मरणकारी कि गत वनप्रांत निर्गत
मैं चलूं पीछे तुम्हारे
मुग्ध अवनत चेतनाहत।
रूँ तत्सत् तत्सत् सतत
वेणुधारी! तुम वेणु ऐसी बजाना
विस्मरणकारी कि गत वनप्रांत निर्गत
मैं चलूं पीछे तुम्हारे
मुग्ध अवनत चेतनाहत।
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होते हैं क्षण
जो देशकाल मुक्त हो जाते हैं।
होते हैं,
पर ऐसे क्षण हम कब दोहराते हैं?
या क्या हम लाते हैं?
उनका होना, जीना, भोगा जाना
है स्वैर्सिद्ध, सब स्वत—मूर्त
हम इसीलिए तो गाते हैं।
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मेघ गरजा,
घोर नभ में मेघ गरजा।
गिरी बरखा
प्रलय रव से गिरी बरखा।
तोड़ शैलों के शिखर
बहा कर धारें प्रखर
ले हजारों घने धुंधले निर्झरों को
कह रही है वह नदी से
उठ, अरी उठ!
कई जन्मों के लिए
तू आज भर जा
मेघ गरजा।
यह जो मैं तुमसे निरंतर पुकार कर रहा हूं कि उठो, भर लो अपने को...
उठ, अरी उठ!
कह रही है वह नदी से
ले हजारों घने धुंधले निर्झरों को
बहा कर धारें प्रखर
तोड़ शैलों के शिखर
उठ, अरी उठ!
कई जन्मों के लिए
तू आज भर जा
मेघ गरजा।
बुद्ध ने तो समाधि की अवस्था को ' धर्म—मेघ' समाधि कहा है, कि जब कोई समाधि को उपलब्ध होता है, तो मेघ बन जाता है। धर्म—मेघ समाधि! धर्म का जल
उससे झरने लगता है, जैसे मेघ से वर्षा गिरती है।
अरी उठ!
कई जन्मों के लिए
तू आज भर जा
मेघ गरजा।
यह समय तुम छोडो मत। यह पुकार उठी है, इसे दबाओ मत। यह संन्यास का आकर्षण पैदा हुआ है, चूको मत।
क्योंकि शुभ करना हो तो देर मत करना। और अशुभ
करना हो तो जल्दी मत करना। क्रोध आए, तो कहना कल कर लेंगे। प्रेम आए, तो अभी कर लेना, कल का क्या भरोसा है! दुश्मनी करनी हो, कल—परसों टालते जाना, टालते जाना। लेकिन दोस्ती बनानी हो, तो क्षण भर नहीं टालना। अभी यहीं। अभी, तो ही होगी दोस्ती। अगर सोचा फिर कभी, तो कभी नहीं।
मैं भी तुमसे मिलने को आतुर हूं। मेघ जब बरसता
है पृथ्वी पर तो ऐसा मत सोचना कि पृथ्वी ही प्यासी है—मेघ भी आतुर है। पृथ्वी ही
प्रसन्न नहीं होती जब जल की बूंदें उसके सूखे कंठ को गीला कर जाती हैं, मेघ भी आनंदित होता है।
कौन मिलनातुर नहीं है!
आ क्षितिज फैली हुई मिट्टी
निरंतर पूछती है
कब मिटेगा, कब कटेगा
बोल तेरी चेतना का शाप?
और तू हो लीन मुझमें
फिर बनेगा शांत।
कौन मिलनातुर नहीं है!
गगन की निर्बंध बहती वायु
प्रतिपल पूछती है
कब गिरेगी टूट तेरी
देह की दीवार
और तू हो लीन मुझमें
फिर बनेगा मुक्त?
कौन मिलनातुर नहीं है!
सर्वव्यापी विश्व का व्यक्तित्व
प्रतिक्षण पूछता है
कब मिटेगा बोल तेरा
अहं का अभिमान
और तू हो लीन मुझमें
फिर बनेगा पूर्ण?
कौन मिलनातुर नहीं है!
परमात्मा भी मिलने को आतुर है। तुम्हीं नहीं
खोज रहे हो उसे; वह भी खोज रहा है। तुम्हीं
नहीं दौड़ रहे उसकी तरफ;वह भी दौड़ रहा है। अगर यह आग
एक ही तरफ से लगी होती तो मजा ही न था। यह आग दोनों तरफ से लगी है। तो ही तो मजा
है, तो ही तो इतना रस है।
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जग के कीचड़ कादों से
लथपथ मटमैली
काल कंटकित झंखाड़ों में
अटकी—झटकी
चित चिरबत्ती
जीवन के श्रम ताप स्वेद से
बुसी कुचैली
चादर का अब मोह निवारो।
दलदल, जंगल, पर्वत
मरुथल मारी—मारी फिरी
शिथिल विकथित काया से
जीर्ण—शीर्ण यह वसन उतारों।
तारक सिकता फूलों में
अविरत बहती
शुभ्र गगन गंगाधारा में
मल—दल नहला
नव निर्मल कर
जलन थकन हर
अपने तन पर
वत्सलता करुणा अनुरंजित
सतरंगा परिधान संवारो।
सतह पर अस्तित्व का उत्थान
किरणावली समुज्ज्वल
मोतियों की मुक्त कर बौछार
कल—कल गान
शत—शत लहरियों के संग
उमगित अंग
तट को प्रथम छूने के लिए
प्रतियोगिता अभियान
अब सब वह बिसारो।
अब लहर नत शीश
तिमिराच्छन्न अंतर
सत्र अंग— अंग
सर्वथा निस्संग निर्धन
हर तरह से हार
अपना रिक्त हस्त पसार
अपने मूक नयनों से
किनारा देख अंतिम बार
पारावार से असहाय एकाकार
भूलो लहर को
प्रभु को पुकारों!
जब आ जाए घड़ी, मन जब राजी हो—चूक मत जाना उस क्षण को।
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अब लहर नत शीश
तिमिराच्छन्न अंतर
सत्र अंग अंग
सर्वथा निस्संग निर्धन
हर तरह से हार
अपना रिक्त हस्त पसार
अपने मूक नयनों से
किनारा देख अंतिम बार
पारावार से असहाय एकाकार
भूलो लहर को
प्रभु को पुकारो!
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दाना तू खेती भी तू
बात भी तू हासिल भी तू।
राह तू रहरव भी तू
रहबर भी तू मंजिल भी तू।
नाखुदा तू डेहर तू
कश्ती भी तू साहिल भी तू।
मय भी तू मीना भी तू
साकी भी तू महफिल भी तू।
यहां तो कुछ और तुम्हें थोड़े ही सिखा रहा हूं।
संन्यास यानी तुम्हारी याद तुम्हें दिलानी है। और तुम सब कुछ हो।
मय भी तू मीना भी तू।
साकी भी तू महफिल भी तू।
मेरे पास सिर्फ तुम्हें वही दे देना है जो
तुम्हारे पास है ही। मैं तुम्हें वही देना चाहता हूं जो तुम्हारे पास है। जो तुम
लिए बैठे हो, और भूल गए हो और जिसका
तुम्हें विस्मरण हो गया है। तुम्हें तुम्हारा स्मरण दिला देना है। संन्यास उस
स्मरण की तरफ एक व्यवस्थित प्रक्रिया है।
इस चक्की पर खाते चक्कर
मेरा तन—मन, जीवन जर्जर
हे कुंभकार, मेरी मिट्टी को
और न अब हैरान करो
अब मत मेरा निर्माण करो!
संन्यास इस बात की घोषणा है कि हे प्रभु! बहुत
चक्कर हो गए इस चाक पर।
इस चक्की .पर खाते चक्कर
मेरा तन—मन, जीवन जर्जर
हे कुंभकार, मेरी मिट्टी को
और न अब हैरान करो
अब मत मेरा निर्माण करो।
इस अंधेरी रात से जागना है—तो संन्यास! इस दुख
भरे नर्क से बाहर निकलना है—तो संन्यास। सुबह को पास लाना है—तो संन्यास। जीवन को
परमात्मा की सुगंध से भरना है—तो संन्यास। संन्यास का अर्थ है : तुमने तैयारी
दिखला दी कि तुम मंदिर बनने को तैयार हो, अब परमात्मा की मौज हो तो आ विराजे तुम्हारे हृदय में।
हरि ओंम तत्सत्!
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