कहीं मिलन हो जाये! तुम्हारी प्यास और जो जल ले
कर मैं तुम्हारे द्वार पर खड़ा हूं उसका कहीं मिलन हो जाये।
तुम
बरसो, भीगे मेरा तन
तुम बरसो, भीगे मेरा मन
तुम बरसो सावन के सावन
कुछ हलकी छलकी गागर हो
कुछ भीगी भारी हो कावर
जब तुम बरसो तब मैं तरसूं
जब मैं तरसूं तब तुम बरसो।
हे धाराधर!
शब्द से कुछ न कहूंगा मैं
नयनों के बीच रहूंगा मैं
जो सहना मौन सहूंगा मैं'
मेरी धड़कन मेरी आहें
मांगेंगी तुमसे प्रत्युत्तर
जब तुम बरसों तब मैं तरसूं
जब मैं तरसूं तब तुम बरसो।
हे धाराधर!
यह भार तुम्हीं पर भारी है
ऊपर बिजली की धारी है
क्या मेरी ही लाचारी है?
कुछ रिक्त भरा हो जाऊं मैं
कुछ भार तुम्हारा जाये उतर
जब तुम बरसो तब मैं तरसूं
जब मैं तरसूं तब तुम बरसों।
हे धाराधर!
एक अपूर्व घटना घट सकती है; कभी—कभी क्षण भर को घटती भी है; कभी किसी को घटती भी है—जब अचानक संवाद फलित
होता है; मेरा पद्य तुम्हें भर लेता
है; मेरी आंखें तुम्हारी आंख से मिल जाती हैं, क्षण भर को तुम रिक्त हो जाते हो,तुम्हारी गागर मेरी तरफ उन्मूख हो जाती है। तो
रस बहता है। तो संगीत उतरता है। और सारा संगीत और सारा रस शून्य का है। क्योंकि
धर्म की सारी चेष्टा यही है कि तुम किसी भांति मिट जाओ ताकि परमात्मा तुम्हारे
भीतर हो सके। तुम शून्य हो जाओ तो पूर्ण उतर सके।
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प्यार की तो भूल भी अनुकूल मेरे
फूल मिलते रोक ही रखते रिझाते
शूल हैं प्रतिपल मुझे आगे बढ़ाते
इस डगर के शूल भी अनुकूल मेरे
प्यार की तो भूल भी अनुकूल मेरे
इन गालियों को भी तुम चाहो तो अनुकूल बना ले
सकती हो।
शूल हैं प्रतिपल मुझे आगे बढ़ाते
फूल मिलते रोक ही रखते रिझाते
पत्थर सीढ़ियां बन जाते हैं, अगर स्वीकार कर लो।
प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है
जानता हूं दूर है नगरी प्रिया की
पर परीक्षा एक दिन होनी हिया की
प्यार के पथ की थकन भी तो मधुर है
प्यार के पथ में जलन भी तो मधुर है।
आग ने मानी न बाधा शैल—वन की
गल रही बुझ पास में दीवार तन की
प्यार के दर पर दहन भी तो मधुर है
प्यार के पथ में जलन भी तो मधुर है।
यह प्रार्थना, प्रेम, भक्ति, ध्यान, परमात्मा का मार्ग—इस पर बहुत तरह की जलन तो होगी। बहुत तरह
की आगों से मुकाबला तो होगा। इसे आनूंद से नाचते और गीत गुनगुनाते गुजार देना, तो हर चीज सहयोगी बन जायेगी। ऐसा तो भूल कर मत
सोचना कि साधना का पथ फूल ही फूल से भरा है। फूल तो कभी—कभी, शूल ही शूल ज्यादा हैं। और जैसे—जैसे आत्यंतिक
घड़ी करीब आने लगेगी, वैसे—वैसे परीक्षाएं तीव्र
और प्रगाढ़ होने लगती हैं। आखिरी कसौटी में तो सारी परीक्षायें गर्दन पर फासी की
तरह लग जाती हैं। उस घड़ी में भी जो निर्विकार, उस घड़ी में भी जो शांत, मौन, अहोभाव से भरा रहता है, वही प्रभु के दर्शन को उपलब्ध हो पाता है।
हरि ओंम तत्सत्!
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