Saturday, 30 May 2015

अष्‍टावक्र: महागीता--(भाग-4) प्रवचन--9

धूप का भेंट—सुदा चश्मा
हमारे संबंधों की तरह
किरच सब बिन जीवन हो गये
स्वर्ण दिन आये क्यालो गये
समय का खलनायक जीता
त्रासदी की फिल्में हो गयीं
मुट्ठियों को खालीपन थाम
पकेपन में स्याही बो गयीं
ना लौटे सपनों के अनुमान
खोजने हरियाली जो गये
कांच के परदे के इस पार
सांस की घुटन सजीवन हुई
दृष्टि में आलेखों को बांध
अस्मिता कापी छुई—मुई
भरे मौसम तक पहुंचे हाथ
अचानक पिघल हवा हो गये।
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और कसो तारतार—सप्तक मैं गाऊं।
ऐसी ठोकर दो मिजराब की अदा से
गूंज उठे सन्नाटा सुरों की सदा से
ठंडे सांचों में मैं ज्वाल ढाल पाऊं।
और कसो तारतार—सप्तक मैं गाऊं।
खूंटियां न तड़के यदि मीडूं मैं ऐठूं
मंजिल नियराये जब पांव तोड़ बैठूं
मुंदी—मुंदी रातो को धूप मैं उगाऊं।
और कसो तारतार—सप्तक मैं गाऊं।
न बाहर— भीतर के द्वंद्वों का मारा
चिपकाये शनि चेहरे पर मंगल तारा
क्या बरसा परती धरती निहार आऊं।
और कसो तारतार—सप्तक मैं गाऊं।
ढीले संबंधों को आपस में कस दूं
सूखे तर्कों को मैं श्रद्धा का रस दूं
पथरीले पंथों पर दूब मैं उगाऊं।
और कसो तारतार—सप्तक मैं गाऊं।
तुम मुझसे उत्तर न मांगो। तुम तो मुझसे कहो :
और कसो तारतार—सप्तक मैं गाऊं।
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