Friday, 29 May 2015

अष्‍टावक्र महागीता-- (भाग-2) प्रवचन--5


सिखलाका वह ऋत् एक ही अनल है,
जिंदगी नहीं वहांजहां नहीं हलचल है।
जिनमें दाहकता नहींन तो गर्जन है, '
सुख की तरंग का जहां अंध वर्जन है।
जो सत्य राख में सने रुक्ष रूठे हैं,
छोड़ो उनकोवे सही नहींझूठे हैं।
जो सत्य राख में सने रुक्ष रूठे हैं।
छोड़ो उनकोवे सही नहींझूठे हैं।
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बांसों—बांस उछलती लहरें।

देख लिया है चांद सलोना,
लेकिन हाथ रह गया बौना।
रह—रहकर कर मलती लहरें,
बांसों—बांस उछलती लहरें।

शीतलता कैसी बिखरा दी,
पानी में ही आग लगा दी।
बुझती और सुलगती लहरें,
बांसों—बांस उछलती लहरें।

स्वप्न —लोक के यात्रा — पथ पर,
भावुकता ने रचा स्वयंवर,
असफल हो सिर हरनती लहरें,
बांसों — बांस उछलती लहरें।
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तो मैं तुमसे कहूंगा : प्रीतमअगर तुम्हें लगता है आंसू का झरना भीतर पड़ा है—
'... रुंधा हुआ अरसे से
कैसे चट्टान हटे बुद्धि की?
कैसे मैं फूट कर बह निकलूं?'
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कौन है अंकुश
इसे मैं भी नहीं पहचानता हूं।
पर सरोवर के किनारे
कंठ में जो जल रही है,
उस तृषाउस वेदना को जानता हूं।
आग है कोई नहीं जो शांत होती
और खुल कर खेलने से निरंतर भागती है।
टूट गिरती हैं उमंगें
बाहुओं का पाश हो जाता शिथिल है,
अप्रतिभ मेंफिर उसी दुर्गम जलधि में डूब जाता
फिर वही उद्विग्न चिंतन
फिर वही पृच्छा चिरंतन
रूप की आराधना का मार्ग
आलिंगन नहीं तो और क्या है?
स्नेह का सौंदर्य को उपहार
रस चुंबन नहीं तो और क्या है?
रक्त की उत्तप्त लहरों की परिधि के पार कोई सत्य हो तो,
चाहता हूं भेद उसका जान लूं
पंथ औसौंदर्य की आराधना का
व्योम में यदि
शून्य की उस रेख को पहचान लूं।
पर जहां तक भी उडूं
इस प्रश्न का उत्तर नहीं है।
मृत्तिमहद् आकाश में ठहरें कहां पर
शून्य है सब
और नीचे भी नहीं संतोष।
मिट्टी के हृदय से
दूर होता ही कभी अंबर नहीं है।
इस व्यथा को झेलता
आकाश की निस्सीमता में
घूमताफिरताविकलविभ्रांत
पर कुछ भी न पाता
प्रश्न जो गढ़ता
गगन की शून्यता में गज कर सब ओर
मेरे ही श्रवण में लौट आता।
मैं न रुक पाता कहीं
फिर लौट आता हूं पिपासित
शून्य से साकार सुषमा के भुवन में
युद्ध से भागे हुए
उस वेदना—विह्वल युवक—सा
जो कहीं रुकता नहीं
बेचैन जा गिरता अकुंठित
तीर—सा सीधे प्रिया की गोद में।
नींद जल का स्रोत है
छाया सघन है
नींद श्यामल मेघ है
शीतल पवन है।
किंतु जग कर देखता हूं
कामनाएं वर्तिका—सी बल रही हैं
जिस तरह पहले पिपासा से विकल थीं
प्यास से आकुल अभी भी जल रही हैं।
प्राण की चिरसगिनी यह वहि
इसको साथ लेकर
भूमि से आकाश तक चलते रहो
मर्त्य नर का भाग्य
जब तक प्रेम की धारा न मिलती
आप अपनी आग में जलते रहो।
मर्त्य नर का भाग्य
जब तक प्रेम की धारा न मिलती
आप अपनी आग में जलते रहो!
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मैं कि रुसवा—ए—मय— ओ—सागरो —मीना ही सही,
मैं कि मक्यूले —गुलो —नरगिसे—सहला ही सही,
फिर भी मैं खाके —रहे—साहिदे —नजरा हूं दोस्त।
मैं कि बरबादे —निगाराने —दिलाआरा ही सही।
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बावरेअहेरी रे! कुछ भी अवध्य नहीं तुझे,
सब आखेट है।
एक बस मेरे मन—विवर मेंदुबकी कलोंच को,
दुबकी ही छोड़ करक्या तू चला जाएगा?
ले मैं खोल देता हूं कपाट सारे
मेरे इस खंडहर की
शिरा—शिरा छेद दे
आलोक की अनि से अपनी।
गढ़ सारा ढाह कर ढूह भर कर दे,
विफल दिनों की तू कलोंच पर मान जा
मेरी आंखें आज जा
कि तुझे देखूं
देखूं और मन मेंकृतज्ञता उमड़ आए
पहनूँ सिरोपे सेये कनक तार तेरे
बावरेअहेरी!
'दिनेशकी प्रार्थना मुझे सुनाई पड़ रही है.
ले मैं खोल देता हूं कपाट सारे
मेरे इस खंडहर की
शिरा—शिरा छेद दे
आलोक की अनि से अपनी!
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