Sunday, 31 May 2015

अजहू चेत गवांर (संत पलटू दास) प्रवचन-7

उनके अल्ताफ का इतना ही फुसूं काफी है
कम है पहले से बहुत दर्दे-जिगर आज की रात।
--उनकी कृपाओं का जादू इतना ही क्या कम है!

 उनके अल्ताफ का इतना ही फुसूं काफी है
--इतनी ही उनकी कृपा बहुतइतना ही उनका जादू-चमत्कार बहुत।

कम है पहले से बहुत दर्दे-जिगर आज की रात।
--पहले से दर्द बहुत कम हैधन्यवाद।
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एक स्वर बोलो!
जीवन में आता-सा
घूम कर जाता-सा
विवश संकल्प में
जीवन जागता-सा
दूर की हेला-सा
फूलते बेला-सा
एक स्वर बोलो
एक एकस्वर बोलो
कोटि पंथों जगी
कोटि दीपों लगी
आग-सी स्पष्ट वह
स्नेह-बाती पगी
आ गई जलन को,
जीवन को बारती
देव-देव हर्ष उठे
बन गई आरती
ओंठ ज़रा खोलो
एक एकस्वर बोलो!
तुम्हारा जीवन आरती तभी बनेगा जब तुम जल उठोभभक उठो।
कोटि पंथों जगी
कोटि दीपों लगी
आग-सी स्पष्ट वह
स्नेह-बाती पगी
आ गई जलन को,
      जीवन को बारती
देव-देव हर्ष उठे
बन गई आरती!
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विश्व में सबसे वही हैं वीर
है जिन्होंने आप अपने को गढ़ा
और वे ज्ञानी अगम गंभीर
है जिन्होंने आप अपने से पढ़ा।
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ले चलहां मझधार में ले चलसाहिल-साहिल क्या जाना
मेरी कुछ परवाह न करमैं खूंगर हूं तूफानों का।
भक्त तो कहता है कि किनारे-किनारे लगाकर क्या नौका को चलना!
ले चलहां मझधार में ले चलसाहिल-साहिल क्या जाना!
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सपनों के सारे शीशमहल फिर चकनाचूर हुए
जब सांझ लगी घिरनेअपने साए भी दूर हुए।
इसके पहले कि सांझ घिर जाएजागो! अजहूं चेत गंवार!
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ढल गया सूरजउदासी छा गई
सांवरी-सी सांझ सहसा आ गई
पंथ थे उन्मुक्तक्यों कर रुक गए
क्यों धरा की ओर सहसा झुक गए
दृष्टि काली डोर से टकरा गई
सांवरी-सी सांझ सहसा आ गई।
अनमनी धरतीगगन है अनमना
रह गया सपना कि जैसे अधबना
घिर गए बादल बहुत से सुरमई
सांवरी-सी सांझ सहसा आ गई।
सूर्य के अंतिम किरण-सर छूटते
और जल-दर्पण वहीं पर टूटते
टूटते ही बिंब लौ टूटे गई
सांवरी-सी सांझ सहसा आ गई।
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सीस उतारै हाथ सेसहज आसिकी नाहिं।।
सहज आसिकी नाहिंखांड खाने को नाहीं।
झूठ आसिकी करैमुलुक में जूती खाहीं।।
जीते जी मरि जायकरै ना तन की आसा।
आसिक का दिन रातरहै सूली पर वासा।।
मान बड़ाई खोयनींद भर नाहीं सोना।
तिलभर रक्त न मांसनहीं आसिक को रोना।।
पलटू बड़े बेकूफ वेआसिक होने जाहिं।
सीस उतारै हाथ सेसहज आसिकी नाहिं।।
यह तो घर है प्रेम काखाला का घर नाहिं।।
खाला का घर नाहिंसीस जब धरै उतारी।।
हाथ-पांव कटि जायकरै ना संत करारी।
ज्यौं-ज्यौं लागै घावतेहुंत्तेहुं कदम चलावै।
सूरा रन पर जायबहुरि न जियता आवै।।
पलटू ऐसे घर महैंबड़े मरद जे जाहिं।
यह तो घर है प्रेम काखाला का घर नाहिं।।
लगन महूरत झूठ सबऔर बिगाड़ैं काम।।
और बिगाड़ैं कामसाइत जनि सोधैं कोई।
एक भरोसा नाहिंकुसल कहुवां से होई।।
जेकरे हाथै कुसलताहि का दिया बिसारी।
आपन इक चतुराईबीच में करै अनारी।।
तिनका टूटा नाहिंबिना सतगुरु की दाया।
अजहूं चेत गंवारजगत् है झूठी काया।।
पलटू सुभ दिन सुभ घड़ीयाद पड़ै जब नाम।
लगन महूरत झूठ सबऔर बिगाड़ैं काम।।

आज इतना ही।


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