Friday, 29 May 2015

अष्‍टावक्र: महागीता--(भाग--3) प्रवचन--5

हायक्या जीवन यही था!

एक बिजली की झलक में
स्वप्न औरसरूप दीखा
हाथ फैले तो मुझे निज
हाथ भी दिखता नहीं था
हायक्या जीवन यही था!

एक झोंके में गगन के
तारकों ने जा बिठाया
मुट्ठियां खोलींसिवा कुछ
कंकड़ों के कुछ नहीं था
हायक्या जीवन यही था!

गीत से जगती न थी
चीख से दुनिया न घूमी
हाय लगते एक से अब
गान औक्रंदन मुझे भी
छल गया जीवन मुझे भी
हायक्या जीवन यही था!
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लौटती है लहर सागर को अगम
गंभीर क्षण हैशांति रखोमौन धारो!
और जो होना यही हैहो
क्योंकि सारा भूत ही इसकी गवाही है
कि जो होना हुआ हैवही हो कर रहा है।
हुई की लंबी पुरानी आदिहीन कथा—व्यथा है
लिखीसुधियों में संजोई
जान या अनजानभूली या भुलाई
लौटती है लहर सागर को अगम
शांति रखोमौन धारो।
और जो होना यही हैहो
क्योंकि सारा भूत ही इसकी गवाही है
कि जो होना हुआ हैवही हो कर रहा है।
पीछे लौट कर देखो। जरा अपने जीवन की कहानी के पन्ने पलटो। जरा अतीत में खोजबीन करोखोदो। तुम पाओगे : जो होना है वही होकर रहा है। तुम नाहक ही बीच में परेशान हो लिए। तुम्हारे बिना भी होकर रहता। तुम इतने परेशान न होते तो भी होकर रहता। हार हुईतुम परेशान न होतेतो भी हो जाती। होनी थी तो हो जाती। तुम परेशानी बचा सकते थेहार नहीं बदल सकते थे। आदमी के हाथ में बस इतना ही है कि परेशानी बचा लेदुख बचा लेपीड़ा बचा लेसंताप बचा ले। जो होना हैहोकर रहेगा। जो होना हैहोता ही रहा है। लेकिन हमारा मन इससे बगावत करना चाहता है। क्योंकि जब हम कुछ करते हैंतभी हमें मजा आता हैनशा आता हैतभी लगता है : मैं हूं! एक गीत कल मैं पढ़ रहा था :
प्रार्थना करनी मुझे है
और इसे स्वीकारनासंभव बनाना—
सरल उतना ही तुम्हें है!
परमात्मा से प्रार्थना कर रहा है भक्त:

प्रार्थना करनी मुझे है
और इसे स्वीकारनासंभव बनाना—
सरल उतना ही तुम्हें है
यह कि तुम जिस ओर आओचलूं मैं भी
यह कि तुम जो राह थामोरहूं थामे हुए मैं भी
यह कि कदमों से तुम्हारे कदम अपना मैं मिलाए रहूं
यह कि तुम खींचो जिधर कोखिंचूं
जिससे तुम मुझे चाहो बचानाबधू
यानी कुछ न देखूं कुछ न सोचूं
कुछ न अपने से करूं—
मुझसे यह न होगा।
छूटने कोविलग जानेठोकरें खानेलुड़कने
गरज अपने —आप करने के लिए कुछ विकल
चंचल आज मेरी चाह है।
प्रार्थना भी आदमी करता है कि हे प्रभुतू जैसा कराए वैसा ही हम करें। तेरी जैसी मर्जीवही पूरी हो। कहते हैं लोग :’उसकी मर्जी के बिना पता भी नहीं हिलता।’ लेकिन फिर भी कहीं भीतर अहंकार घोषणा करता है :
मुझसे न होगा
छूटने कोविलग जानेठोकरें खानेलुड़कने
गरज अपने — आप करने के लिए कुछ विकल
चंचल आज मेरी चाह है।
अहंकार निरंतर कोशिश करता है: ’कुछ अपने से करके दिखा दूं! कर्ता हो कर दिखा दूं!यह कर्ता होने की चाह समस्त नर्क का आधार हैस्रोत है।
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यह कि अपना लक्ष्य निश्चित मैं न करता
यह कि अपनी राह मैं चुनता नहीं हूं
यह कि अपनी चाल मैंने नहीं साधी
यह कि खाई—खंदकों को आंख मेरी देखने से चूक जाती
यह कि मैं खतरा उठाने से हिचकता—झिझकता हूं
यह कि मैं दायित्व अपना ओढ़ते घबड़ा रहा हूं
कुछ नहीं ऐसा
शुरू में भी कहीं पर चेतना थी
भूल कोई बड़ी होगी
तुम सम्हाल तुरंत लोगे
अंत में भी आश्वासन चाहता हूं
अनगही मेरी नहीं है बांह!
कहीं ऊपर—ऊपर तो वह सब खेल चलता रहता है—हार काजीत कापराजय कासफलता— विफलतासुख—दुख का—लेकिन भीतर कहीं अचेतन की गहराई में ऐसा भी प्रतीत होता रहता है १ भूल कोई बड़ी होगी
तुम सम्हाल तुरंत लोगे
अंत में भी आश्वासन चाहता हूं
अनगही मेरी नहीं है बांह!
वह भी बना रहता है। मनुष्य एक विरोधाभास है। एक तल पर कर्ता होने की कोशिश करता रहता है और एक तल पर जानता भी रहता है कि अकर्ता हूं और तुमने मेरी बांह पकड़ी हैइसलिए सम्हाल लोगे। अपनी तरफ से सम्हलने की चेष्टा भी करता रहता है और भीतर कहीं जानता भी रहता है कि सम्हाल लोगे अगर भटकूगा बहुत। इन दोनों दुविधाओं के बीच आदमी टूट जाता है। तो इस लिहाज से वे लोग भले जैसे पश्चिम के लोगउन्होंने पहली बात छोड़ ही दी। वे मानते ही नहीं कि तुम सम्हाल लोगेतुम हो ही नहीं! ईश्वर मर चुका। वह बात खतम हुई। वह बात आयी—गयीअब पुराण—कथा हो गयी। अब तो अपने से ही करना है जो करना है। आदमी ही कर्ता है और कोई नहीं।
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खोल दो नाव
जिधर बहती हैबहने दो
नाव तो तिर सकती है मेरे बिना भी
मैं बिना नाव भी डूब सकूंगा
चलो खोल दो नाव
चुपचाप जिधर बहती हैबहने दो
मुझे रहने दो
अगर मैं छोड़ पतवार निस्सीम पारावार तकता हूं
खोल दो नाव
जिधर बहती होबहने दो।
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स्वप्न में तुम हों—तुम्हीं हो जागरण में।

कब उजाले में मुझे कुछ और भाया
कब अंधेरे ने तुम्हें मुझसे छिपाया
तुम निशा में और तुम्हीं प्रात: —किरण में
स्वप्न में तुम हो —तुम्हीं हो जागरण में।

ध्यान है केवल तुम्हारी ओर जाता
ध्येय में मेरे नहीं कुछ और आता
चित्त में तुम हो—तुम्हीं हो चिंतवन में
स्वप्न में तुम हो—तुम्ही हो जागरण में।

रूप बन कर घूमता जो वह तुम्हीं हो
राग बन कर गूंजता जो वह तुम्हीं हो
तुम नयन में और तुम्हीं अंतःकरण में
स्वप्न में तुम हों—तुम्हीं हो जागरण में।
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