हाय, क्या जीवन यही था!
एक बिजली की झलक में
स्वप्न औ' रसरूप दीखा
हाथ फैले तो मुझे निज
हाथ भी दिखता नहीं था
हाय, क्या जीवन यही था!
एक झोंके में गगन के
तारकों ने जा बिठाया
मुट्ठियां खोलीं, सिवा कुछ
कंकड़ों के कुछ नहीं था
हाय, क्या जीवन यही था!
गीत से जगती न थी
चीख से दुनिया न घूमी
हाय लगते एक से अब
गान औ' क्रंदन मुझे भी
छल गया जीवन मुझे भी
हाय, क्या जीवन यही था!
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लौटती है लहर सागर को अगम
गंभीर क्षण है, शांति रखो, मौन धारो!
और जो होना यही है, हो
क्योंकि सारा भूत ही इसकी गवाही है
कि जो होना हुआ है, वही हो कर रहा है।
हुई की लंबी पुरानी आदिहीन कथा—व्यथा है
लिखी, सुधियों में संजोई
जान या अनजान, भूली या भुलाई
लौटती है लहर सागर को अगम
शांति रखो, मौन धारो।
और जो होना यही है, हो
क्योंकि सारा भूत ही इसकी गवाही है
कि जो होना हुआ है, वही हो कर रहा है।
पीछे लौट कर देखो। जरा अपने जीवन की कहानी के
पन्ने पलटो। जरा अतीत में खोजबीन करो, खोदो। तुम पाओगे : जो होना है वही होकर रहा है। तुम नाहक ही
बीच में परेशान हो लिए। तुम्हारे बिना भी होकर रहता। तुम इतने परेशान न होते तो भी
होकर रहता। हार हुई, तुम परेशान न होते, तो भी हो जाती। होनी थी तो हो जाती। तुम
परेशानी बचा सकते थे, हार नहीं बदल सकते थे। आदमी
के हाथ में बस इतना ही है कि परेशानी बचा ले, दुख बचा ले, पीड़ा बचा ले, संताप बचा ले। जो होना है, होकर रहेगा। जो होना है, होता ही रहा है। लेकिन हमारा मन इससे बगावत करना चाहता है।
क्योंकि जब हम कुछ करते हैं, तभी हमें मजा आता है, नशा आता है, तभी लगता है : मैं हूं! एक गीत कल मैं पढ़ रहा था :
प्रार्थना करनी मुझे है
और इसे स्वीकारना, संभव बनाना—
सरल उतना ही तुम्हें है!
परमात्मा से प्रार्थना कर रहा है भक्त:
प्रार्थना करनी मुझे है
और इसे स्वीकारना, संभव बनाना—
सरल उतना ही तुम्हें है
यह कि तुम जिस ओर आओ, चलूं मैं भी
यह कि तुम जो राह थामो, रहूं थामे हुए मैं भी
यह कि कदमों से तुम्हारे कदम अपना मैं मिलाए
रहूं
यह कि तुम खींचो जिधर को, खिंचूं
जिससे तुम मुझे चाहो बचाना, बधू
यानी कुछ न देखूं कुछ न सोचूं
कुछ न अपने से करूं—
मुझसे यह न होगा।
छूटने को, विलग जाने, ठोकरें खाने, लुड़कने
गरज अपने —आप करने के लिए कुछ विकल
चंचल आज मेरी चाह है।
प्रार्थना भी आदमी करता है कि हे प्रभु, तू जैसा कराए वैसा ही हम करें। तेरी जैसी मर्जी, वही पूरी हो। कहते हैं लोग :’उसकी मर्जी के
बिना पता भी नहीं हिलता।’ लेकिन फिर भी कहीं भीतर अहंकार घोषणा करता है :
मुझसे न होगा
छूटने को, विलग जाने, ठोकरें खाने, लुड़कने
गरज अपने — आप करने के लिए कुछ विकल
चंचल आज मेरी चाह है।
अहंकार निरंतर कोशिश करता है: ’कुछ अपने से
करके दिखा दूं! कर्ता हो कर दिखा दूं!' यह कर्ता होने की चाह समस्त नर्क का आधार है, स्रोत है।
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यह कि अपना लक्ष्य निश्चित मैं न करता
यह कि अपनी राह मैं चुनता नहीं हूं
यह कि अपनी चाल मैंने नहीं साधी
यह कि खाई—खंदकों को आंख मेरी देखने से चूक
जाती
यह कि मैं खतरा उठाने से हिचकता—झिझकता हूं
यह कि मैं दायित्व अपना ओढ़ते घबड़ा रहा हूं
—कुछ
नहीं ऐसा
शुरू में भी कहीं पर चेतना थी
भूल कोई बड़ी होगी
तुम सम्हाल तुरंत लोगे
अंत में भी आश्वासन चाहता हूं
अनगही मेरी नहीं है बांह!
कहीं ऊपर—ऊपर तो वह सब खेल चलता रहता है—हार का, जीत का, पराजय का, सफलता— विफलता, सुख—दुख का—लेकिन भीतर कहीं अचेतन की गहराई में
ऐसा भी प्रतीत होता रहता है १ भूल कोई बड़ी होगी
तुम सम्हाल तुरंत लोगे
अंत में भी आश्वासन चाहता हूं
अनगही मेरी नहीं है बांह!
वह भी बना रहता है। मनुष्य एक विरोधाभास है। एक
तल पर कर्ता होने की कोशिश करता रहता है और एक तल पर जानता भी रहता है कि अकर्ता
हूं और तुमने मेरी बांह पकड़ी है, इसलिए सम्हाल लोगे। अपनी तरफ
से सम्हलने की चेष्टा भी करता रहता है और भीतर कहीं जानता भी रहता है कि सम्हाल
लोगे अगर भटकूगा बहुत। इन दोनों दुविधाओं के बीच आदमी टूट जाता है। तो इस लिहाज से
वे लोग भले जैसे पश्चिम के लोग, उन्होंने पहली बात छोड़ ही
दी। वे मानते ही नहीं कि तुम सम्हाल लोगे, तुम हो ही नहीं! ईश्वर मर चुका। वह बात खतम हुई। वह बात
आयी—गयी, अब पुराण—कथा हो गयी। अब तो
अपने से ही करना है जो करना है। आदमी ही कर्ता है और कोई नहीं।
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खोल दो नाव
जिधर बहती है, बहने दो
नाव तो तिर सकती है मेरे बिना भी
मैं बिना नाव भी डूब सकूंगा
चलो खोल दो नाव
चुपचाप जिधर बहती है, बहने दो
मुझे रहने दो
अगर मैं छोड़ पतवार निस्सीम पारावार तकता हूं
खोल दो नाव
जिधर बहती हो, बहने दो।
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स्वप्न में तुम हों—तुम्हीं हो जागरण में।
कब उजाले में मुझे कुछ और भाया
कब अंधेरे ने तुम्हें मुझसे छिपाया
तुम निशा में और तुम्हीं प्रात: —किरण में
स्वप्न में तुम हो —तुम्हीं हो जागरण में।
ध्यान है केवल तुम्हारी ओर जाता
ध्येय में मेरे नहीं कुछ और आता
चित्त में तुम हो—तुम्हीं हो चिंतवन में
स्वप्न में तुम हो—तुम्ही हो जागरण में।
रूप बन कर घूमता जो वह तुम्हीं हो
राग बन कर गूंजता जो वह तुम्हीं हो
तुम नयन में और तुम्हीं अंतःकरण में
स्वप्न में तुम हों—तुम्हीं हो जागरण में।
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