मौन तम के पार से यह कौन मेरे पास आया
मौत में सोये हुए संसार को किसने जगाया
कर गया है कौन फिर भिनसार, वीणा बोलती है
छू गया है कौन मन के तार, वीणा बोलती है।
मृदु मिट्टी के बने हुए मधुघट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन ले कर आये हैं प्याले टूटा ही करते
हैं
फिर भी मदिरालय के अंदर मधु के घट हैं, मधु प्याले हैं।
जो मादकता के मारे हैं वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है जिसकी ममता घट, प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ, कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई।
छू गया है कौन मन के तार, वीणा बोलती है!
वह कच्चा पीने वाला है जिसकी ममता घट, प्यालों पर!
=============================================================
चट जग जाता हूं
चिराग को जलता हूं
हो सजग तुम्हें मैं देख पाता हूं
कि बैठे हो
पास नहीं आते हो
पुकार मचवाते हो
तकसीर बतलाओ,
क्यों यह बदन उमेठे हो?
दरस दीवाना
जिसे नाम का ही बाना
उसे शरण विलोकते भी
देव—देव ऐंठे हो!
सींखचों में घूमता हूं
चरणों को अता हूं
सोचता हूं मेरे इष्टदेव पास बैठे हो!
पास कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि पास में भी दूरी आ गई। इष्टदेव भीतर बैठे हैं। पास
कहना भी ठीक नहीं।
सींखचों में घूमता हूं
चरणों को अता हूं
सोचता हूं _ मेरे इष्टदेव पास बैठे हो!
चट जग जाता हूं
चिराग को जलाता हूं
हो सजग तुम्हें मैं देख पाता हूं बैठे हो!
======================================================
चट जग जाता हूं
चिराग को जलाता हूं
हो सजग तुम्हें मैं देख पाता हूं कि बैठे हो
सींखचों में घूमता हूं
चरणों को अता हूं
सोचता हूं? मेरे इष्टदेव पास बैठे हो!
सींखचों में घूमता हूं! इसीलिए 'पास' मालूम होता है। सींखचों का फासला रह गया है।
तुमने देखा, अपने बेटे को छाती से भी लगा लेते हो, फिर भी सींखचे बीच में हैं! अपनी पत्नी को हृदय
से लगा लेते हो,फिर भी सींखचे बीच में हैं।
मित्र को गले से मिला लेते हो, फिर भी सींखचे बीच में हैं।
पास नहीं है परमात्मा। दूर तो है ही नहीं, पास भी नहीं है। परमात्मा ही है—दूर और पास की
भाषा ही गलत है। वही बाहर, वही भीतर। वही यहां, वही वहां। वही आज, वही कल, वही फिर भी आगे आने वाले कल। वही है। एक ही है।
सूर्योदय!
एक अंजुली फूल
जल से जलधि तक अभिराम
माध्यम शब्द अद्धोंच्चारित
जीवन धन्य है
आभार
फिर आभार
इस अपरिमित में
अपरिमित शांति की अनुभूति
अक्षम प्यार का आभास
समर्पित मत हो त्वचा को
स्पर्श गहरे मात्र
इससे भी श्रेष्ठतर मूर्धन्य सुख
जल बेड़ियों के ऊपर कहीं
कहीं गहरे ठहर कर
आधार, मूलाधार
जीवन हर नये दिन की निकटता
आत्मा विस्तार
सूर्योदय!
एक अंजुली फूल
जल से जलधि तक अभिराम!
============================================
तन के तट पर मिले हम कई बार पर
द्वार मन का अभी तक खुला ही नहीं।
जिंदगी की बिछी सर्प—सी धार पर
अश्रु के साथ ही कहकहे बह गये।
ओंठ ऐसे सिये शर्म की डोर से
बोल दो थे, मगर अनकहे रह गये।
सैर करके चमन की मिला क्या हमें?
रंग कलियों का अब तक घुला ही नहीं।
पूरी जिंदगी गुजर जाती है और कलियों का रंग भी
नहीं घुल पाता। पूरी जिंदगी गुजर जाती है, कली खिल ही नहीं पाती। पूरी जिंदगी गुजर जाती है और तार
छिड़ते ही नहीं वीणा के।
सैर करके चमन की मिला क्या हमें?
रंग कलियों का अब तक घुला ही नहीं।
तन के तट पर मिले हम कई बार पर
द्वार मन का अभी तक खुला ही नहीं।
=================================================================
सत्य की बड़ी गहरी सुगंध है! तुम मिले तो प्रणय
पर छटा छा गई
चुंबनों सांवली—सी घटा छा गई।
एक युग, एक दिन, एक पल, एक क्षण
पर गगन से उतर चंचला आ गई।
प्राण का दान दे, दान में प्राण ले
अर्चना की अधर चांदनी छा गई।
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई।
थोड़ा सत्य की झलक आनी शुरू हो जाए, थोड़ा उस परम प्रियतम से मिलना शुरू हो जाए थोड़ा
ही उसका आचल हाथ में आने लगे..।
तुम मिले तो प्रणय पर छटा छा गई!
तुम मिले, प्राण में रागिनी आ गई!
===================================================
सब सपने भूमिकायें हैं
उस अनदेखे सपने की
जो एक ही बार आएगा
सत्य की भीख मांगने
आंख के द्वार पर।
सब सपने भूमिकायें हैं!
======================================
आंखें शून्य हो जाएं तो सत्य मिल जाए! मन मौन
हो जाए तो प्रभु की वाणी प्रगट हो उठे। तुम मिट जाओ, तो परमात्मा इसी क्षण जाहिर हो उठे।
मात्र है राजमार्ग अभिव्यक्ति का,
शब्द, छंद, मात्रा,
होती है शुरू मौन के बीहड़ से
अनुभूति की यात्रा।
जब तुम चुप हो जाते हो—सब अर्थों में! आंख जब
चुप हो जाती है, तब तुम वही देखते हो जो है।
जब तक आंख बोलती रहती है, तुम वही देखते हो जो
तुम्हारी वासना दिखलाना चाहती है।
==============================================
बैठा है कीचड़ पर जल
चौंका मत!
घट भर और चल
बनाया जा सकता है अंधेरा पालतू
पर मर जाती है बंद करते ही धूप
मुक्ति का द्वार अभिन्न अंग है कारा का
बलि वासनाओं की दो
नारियल कुंठा का तोड़ो
चंदन अहं का घिसो
बन जाएगा तुम्हारा पशु ही प्रभु
बैठा है कीचड़ पर जल
चौंका मत!
घट भर और चल!
==========================================
नहीं गत, आगत, अनागत
निर्वधि जिसकी उपलब्धि
वह तथागत।
गया गया, आने वाला भी छूटा। कोई पकड़ न रही। उसको हम कहते हैं तथागत
की अवस्था। गया भी गया, आने वाला भी न रहा; जो है बस वही बचा, वही प्रकाशित हो रहा है।
चंदा की छांव पड़ी सागर के मन में
शायद मुख देखा है तुमने दर्पण में।
अधरों के ओर—छोर, टेसू का पहरा
आंखों में बदरी का रंग हुआ गहरा
केसरिया गीलापन, वन में उपवन में
शायद मुख धोया है तुमने जल—कण में।
और तुम्हीं को नहीं अहसास होगा, जिस दिन यह घड़ी घटती है, तुम्हारे आसपास के लोग भी देखेंगे! तुम एक
अपूर्व स्वच्छता से, एक कुंवारेपन से भर गये!
तुमसे एक सौरभ उठ रहा नया—नया!
धो लिया है चेहरा तुमने प्रभु के चरणों में!
यह अमर निशानी किसकी है!
बाहर
से जी, जी से बाहर तक
आनी जानी किसकी है!
दिल से आंखों से गालों तक
यह तरल कहानी किसकी है!
यह अमर निशानी किसकी है!
रोते—रोते
भी आंखें मुंद जाएं
सूरत दिख जाती है
मेरे आंसू में मुसक मिलाने
की नादानी किसकी है!
यह अमर निशानी किसकी है!
सूखी
अस्थि, रक्त भी सूखा
सूखे दृग के झरने
तो भी जीवन हरा
कहो मधुभरी जवानी किसकी है!
यह अमर निशानी किसकी है!
रैन अंधेरी, बीहड़ पथ है
यादें थकीं अकेली
आंखें मुंदी जाती हैं
चरणों की बानी किसकी है!
यह अमर निशानी किसकी है!
जैसे ही तुम शांत हुए, तुम पाओगे वही आता है श्वास में भीतर, वही जाता श्वास में बाहर! वही आता, वही जाता। वही है, वही था, वही होगा! एक ही है!
हरि ओंम तत्सत्!
============================
No comments:
Post a Comment