Friday, 29 May 2015

अष्‍टावक्र: महागीता--(भाग--3) प्रवचन--1

ये खाडियायह उदासीयहां न बांधो नाव।
यह और देश है साथीयहां न बांधो नाव।

दगा करेंगे मनाजिर किनारे —दरिया के
सफर ही में है भलाईयहां न बाधो नाव।

फलक गवाह कि जल— थल यहां है डावांडोल
जमीं खिलाफ है भाईयहां न बांधो नाव।

यहां की आबोहवा में है और ही बू—बास
यह सरजमीं है पराईयहां न बांधो नाव।

डुबो न दें हमें ये गीत कुबें—साहिल के
जो दे रहे हैं सुनाईयहां न बांधो नाव।

जो बेड़े आए थे इस घाट तक अभी उनकी
खबर कहीं से न आईयहां न बांधो नाव।

रहे हैं जिनसे शनासा यह आसमा वह नहीं
यह वह जमीं नहीं भाईयहां न बांधो नाव।

यहां की खाक से हम भी मुसाम रखते हैं
वफा की बू नहीं आईयहां न बांधो नाव।

जो सरजमीन अजल से हमें बुलाती है
वह सामने नजर आईयहां न बांधो नाव।

सवादे—साहिले—मकसूद आ रहा है नजर
ठहरने में है तबाहीयहाँ न बांधो नाव।

जहां—जहां भी हमें साहिलों ने ललचाया
सदा फिराक की आईयहां न बांधो नाव।
============================
खोजियो! तुम नहीं मानोगे
लेकिन संतों का कहना सही है
जिस घर में हम घूम रहे हैं
उससे निकलने का रास्ता नहीं है
शून्य और दीवार दोनों एक हैं
आकार और निराकार दोनों एक हैं
जिस दिन खोज शांत होगी
तुम आप से यह जानोगे
कि खोज पाने की नहीं
खोने की थी।
यानी तुम सचमुच में जो हो
वही होने की थी।
खोजियो! तुम नहीं मानोगे।
=====================
मत छुओ इस झील को
कंकड़ी मारो नहीं
पत्तियां डारो नहीं
फूल मत बोते
और कागज की तरी
इसमें नहीं छोड़ो।
खेल में तुमको
पुलक उन्मेष होता है
लहर बनने में
सलिल को क्लेश होता है।

===================================
मेरा जीवन सबका साखी।
कितनी बार दिवस बीता है,
कितनी बार निशा बीती है।
कितनी बार तिमिर जीता है,
कितनी बार ज्योति जीती है।
मेरा जीवन सबका साखी।

कितनी बार सृष्टि जागी है
कितनी बार प्रलय सोया है।
कितनी बार हंसा है जीवन
कितनी बार विवश रोया है।
मेरा जीवन सबका साखी।
=====================================
 नीड़ नहीं करता पंछी की
पल भर कभी प्रतीक्षा।
गान नहीं लिखता पंखों की
अच्छी बुरी समीक्षा।
दीप नहीं लेता शलभों की
कोई अग्नि परीक्षा।
धूम नहीं काजल बनने की
करता कभी अभीप्सा।
प्राण स्वयं ही केवल अपनी,
तृषा तृप्ति का माध्यम।
तत्व सभी निरपेक्ष,
अपेक्षा मन का मीठा विभ्रम!
तत्व सभी निरपेक्ष,
अपेक्षा मन का मीठा विभ्रम।
======================================
प्राहाअपने को नकार कर
सोचता है आदमी
दूसरों के बारे में
भटकता है अंधियारे में
निकालता है खा कर चोट
पत्थरों को गालियां।
करता है निंदा रास्तों की
सुन कर अपनी ही प्रतिध्वनि
भींचता है मुट्ठिया
पीसता है दात
नोचता है चेतना के पंख
नहीं देख पाता
आत्मा का निरभ्र आकाश।
=====================================
धागे में मणिया हैं
कि मणियों में धागा
ज्ञाता वह जो शब्द में सोया
अक्षर में जागा।
दर्पण में बिबित
छाया से लड़ते—लड़ते
हो गया है
लहूलुहान सत्य।
आंख मुँदे तो आंख खुले।
आंख मुंदे तो आंख खुले!
आंख खोल कर तुमने जो देखा हैवह संसार है। आंख मूंद कर जो देखोगे—वही सर्ववही परमात्मावही सत्य।
आंख मुंदे तो आंख खुले।
ये सारे सूत्र एक अर्थ में आंख मूंदने के सूत्र हैं—संसार से मूंद लो आंख। और एक अर्थ में आंख खोलने के सूत्र हैं—खोल लो परमात्मा की तरफस्वयं की तरफ आंख।

================================================

No comments:

Post a Comment