वह गंध मेरे मन बस गई रे
एक बन जूही एक बन बेला
अगणित गंधों का यह मेला
पाकर मुझको निपट अकेला
इन प्रणों को कस गई रे
वह गंध मेरे मन बस गई रे
एक दिन पश्चिम एक दिन पूरब
भटक रहे हैं गंध पंख सब
रोम—रोम के द्वार खोलकर
वह अंतर में धंस गई रे
वह गंध मेरे मन बस गई रे
नभ में जिसकी डालें अटकी
थल पर जिसकी कलियां चटकीं
मेरे जीवन के कर्दम में
वह अनजाने फंस गई रे
वह गंध मेरे मन बस गई रे
जब तक सदगुरु की गंध तुम्हारे मन में न बस जाए, जब तक तुम दीवाने न हो जाओ, तब तक कुछ भी न हणो। सदगुरु और शिष्य का संबंध
रागात्मक है। वह वैसा ही संबंध है जैसे प्रेमी और प्रेयसी का। निश्चित ही प्रेमी
और प्रेयसी के संबंध से बहुत पार। लेकिन उसी से केवल तुलना दी जा सकती है, और कोई तुलना नहीं है। दीवानगी का संबंध है।
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जब कभी गिरने लगा मन खाइयों में
कौन पीछे से अचानक थाम लेता?
सूखते जब जिंदगी के स्रोत सारे
धार से कटते चले जाते किनारे
कौन दृढ़ विश्वास इन कठिनाइयों में
जिंदगी को हर सुबह हर शाम देता?
जब निगाहों में सिमट आते अंधेरे
जिंदगी बिखरे समय के खा थपेड़े
कौन धुंधलायी हुई परछाइयों में
जिंदगी के कण समेट तमाम लेता?
जो जमाने से विभाजित हो न पाई
रह गई अवशेष वह जीवन इकाई
कौन फिर संयोग बन तनहाइयों में
जिंदगी को नित नये आयाम देता?
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अब न अगले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़
एक मिट जाने की हसरत अब दिले—बिस्मिल में है
यह मिट जाने की हसरत भी जाने दो। यह हसरत भी
उपद्रव है। जल्दी न करो। मौत की इतनी क्या जल्दी।
मौत है वह राज जो आखिर खुलेगा एक दिन
जिंदगी वह है मुअम्मा कोई जिसका हल नहीं
मौत तो एक दिन खुल ही जाएगी, एक दिन हो ही जाएगी। उसकी क्या जल्दी में पड़े
हो। मरने की भी क्या चाहत। जिंदगी को समझ लो। जिंदगी को समझ लिया, जिंदगी खुल गई। और जहां जिंदगी खुल गई वहा मौत
खुल गई। क्योंकि मौत कुछ भी नहीं, जिंदगी का अंतिम शिखर है।
मौत कुछ भी नहीं, जिंदगी की चरम अवस्था है।
मौत कुछ भी नहीं, जिंदगी का आखिरी गीत है।
जिंदगी समझ ली तो मौत समझ में आ जाती है। होना समझ लिया तो न होना समझ में आ जाता
है।
इसलिए तो तुमसे कहता हूं संसार से भागना मत।
संसार को समझ लिया तो मोक्ष समझ में आ जाता है। लेकिन तुम जल्दबाजी में पड़ते हो।
संसार को बिना समझे तुम मोक्ष को समझने चल पड़ते हो। फिर तुम्हारा मोक्ष भी नया
संसार बन जाता है।
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सुनी हिकायते—हस्ती तो दर्मिया से सुनी
न इब्तदा की खबर है, न इब्तदा मालूम
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थोड़ा अपने को पिघलाओ। थोड़ा छूने दो प्रभु को
तुम्हें।
फागुन ने क्या छू लिया तनिक मन को
कर्पूरी देह अबीर हो गई है
क्या छुए मधुर गीतों ने रसिक अधर
धड़कन— धड़कन मंजीर हो गई है
अंगों पर फैल गई केसर क्यारी
नभ बाहों में भरने की तैयारी
बढ़ गई अचानक चंचलता लट की
सीमा—रेखाएं सिमटी घूंघट की
सांसों को क्या छू गई मदिर सांसें
गंधायित मलय समीर हो गई है
फागुन ने क्या छू लिया तनिक मन को
कर्पूरी देह अबीर हो गई है
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अवनी पर आकाश गा रहा
विरह मिलन के पास आ रहा
चारों ओर विभोर प्राण
झकझोर घोर में नाचे
निरख घोर घन
मुग्ध मोर मन
जल हिलोर में नाचे
जरा हिलोर बनो।
निरख घोर घन
मुग्ध मोर मन
जल हिलोर में नाचे
चारों ओर विभोर प्राण
झकझोर घोर में नाचे
निछावर इंद्रधनुष तुझ पर
निछावर प्रकृति—पुरुष तुझ पर
मयूरी उन्मन—उन्मन नाच
मयूरी छूम छनाछन नाच
मयूरी नाच, मगन—मन नाच
मयूरी नाच, मगन—मन नाच
गगन में सावन घन छाए
न क्यों सुधि साजन की आए
मयूरी आंगन—आंगन नाच
मयूरी नाच मगन—मन नाच
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