Thursday, 28 May 2015

मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--19



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भभक उठी धरती की छाती
भर आया अंबर का अंतर
मिलन हुआ ऐसा दीवाना
जल बरसा घड़ियों तक झरझर।
बेसुध झडियां, बेसुध झोंके,
बेसुध निरे सलोने मेघ!
नभ में घिरे सलोने मेघ!
कूकी पिकी, मयूर नच उठा
इंद्रधनुष उमड़ा पांखों में
झूम गई तसवीर स्वाति की
चातक की प्यासी आंखों में!
सरिता के जल में हंसों के
दलसे धिरे सलोने मेघ!
नभ मेघ! रात हुई तम के मंडप में
नाच उठी चपलामधुबाला।
खनक उठे बूंदों के नूपुर
छलक उठा प्याले पर प्याला।
मद्यपसे उठउठकर फिरफिर
भू पर गिरे सलोने मेघ!
नभ में घिरे सलोने मेघ!
मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--19
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गीतगीत में, शब्दशब्द में छाया मधुमय प्यार
जब तुम आये पहली बार।
कणकण पर बिछ गयी तुम्हारी रूपमाधुरी,
स्वरस्वर में गा उठी तुम्हारी कंठबांसुरी,
किरणों के अवगुंठन में हंस उठी पांखुरी,
मेरे पग पा गये तुम्हारी गति का पंथपसार
जब तुम आये पहली बार।
बादल पर ये इंद्रधनुष के चित्र खिल गये,
सावन को हंसती बिजली के स्वप्न मिल गये
जिस दिन से तुम रमे असीम अभाव किल गये,
फूलफूल पर उमड़ उठा शतशत रंगों का ज्वार।
जब तुम आये पहली बार।
सांस मिल गयी युगयुग के इस विकल मरण को
पंथ मिल गया भूलेभटके थके चरण को,
दीप मिल गया अंधकार के महावरण को,
विधवा सी सूनी रजनी को मिला नखत सिंगार।
जब तुम आये पहली बार।
गीतगीत में, शब्दशब्द में छाया मधुमय प्यार
जब तुम आये पहली बार।
मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--19

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अर्चना मैं कर पाया।
दो क्षणों के उस मिलन में कौनसा मैं गीत गाता?
जब तुम्हें लख सामने, निज को स्वयं मैं भूल जाता।
बन गया था मूक, प्रिय की वंदना मैं कर पाया।
अर्चना मैं कर पाया।
मुस्कुराए तुम, हृदय में छा गई मेरे विकलता,
ज्यों पतंग विभोर होता, देखते ही दीप जलता।
कौन परिचय दूं प्रणय की कामना मैं कर पाया?
अर्चना मैं कर पाया।
मौन अंतर की व्यथा को क्या गए पहचान थे तुम?
मैं छिपाए था जिसे उसका गए प्रिय जान थे तुम।
खुल गया सब भेद, पूरी साधना मैं कर पाया।
अर्चना मैं कर पाया।
हो रहे थे तुम द्रवित लख वेदना का भार मेरा।
हो गया साकार ही था दीन उर का प्यार मेरा।
स्वप्न से आये, गए तुम याचना मैं कर पाया।
अर्चना मैं कर पाया।
और जब ऐसी घड़ी पहली बार आती है, तो साधक अवाक रह जाता है।
अर्चना मैं कर पाया!
स्वप्न से आए गए तुम याचना मैं कर पाया।
उस क्षण एक शब्द भी बोला नहीं जातामूक, वाणी खो जाती है। चुप्पी हो जाती है, सन्नाटा हो जाता है। जहां दिन है रात, उदय अस्त, वहां मैंतू भी कहां? कौन करे अर्चना, किसकी करे अर्चना?
अर्चना मैं कर पाया।
दो क्षणों के उस मिलन में कौनसा मैं गीत गाता
जब तुम्हें लख सामने, निज को स्वयं मैं भूल जाता।
बन गया था मूक, प्रिय की वंदना मैं कर पाया।
अर्चना मैं कर पाया।
मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--19
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छू कर प्राणों की पीर प्रीति बन जाओ
जो कुछ उलझी थी आज उसे सुलझा दो
जो कुछ सुलझी थी आज उसे उलझा दो
मेरे नयनों के सावन आज सुखा दो
मैं चाह रही हूं मुझको आज दुखा दो
नयनों के नेही स्नेह नीति बन जाओ।
छू कर प्राणों की पीर प्रीति बन जाओ।
तुम स्नेह स्वाति बन जीवन भर तरसाओ
मेरे चित चातक को अधिक दरसाओ
अधरों की यदि मुस्कान चुराओ जानूं
इतना कर दो तो धन्यभाग मैं मानूं
तुम वर्तमान के चिर अतीत बन जाओ
छू कर प्राणों की पीर प्रीति बन जाओ
मेरे सम्मुख झूठा शृंगार नहीं है
स्वम्मिल आशाओं का आधार नहीं है
मेरी वीणा के बिखरे तार सजा दो
इंगित से उसको क्षण भर आज बजा दो।
गा कर तुम मेरे गीत मीत बन जाओ
छू कर प्राणों की पीर प्रीति बन जाओ।
यह पतिआने का अर्थ : बजो दो मेरे हृदय की वीणा को, झंकृत कर दो!
मेरी वीणा के बिखरे तार सजा दो
इंगित से उसको क्षण भर आज बजा दो।
गा कर तुम मेरे गीत मीत बन जाओ
छू कर प्राणों की पीर प्रीति बन जाओ
मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--19

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बाधो नहीं, बांधो नहीं
आरोही गंध को,
छंद की पंखुरियों में
गीतों की लड़ियों में।
कूलों की कारा में
गंगा की धारा को
बंदी बनाओ नहीं,
ज्योतिर्मय किरणों को
स्तब्ध, मौन ग्रहण करो
वहन करो, वहन करो!
मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--19
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मरो हे जोगी मरो (गोरख नाथ) प्रवचन--19
शाम है इस तरह की आज उदास
खुद से दूरी का जिस तरह एहसास
जैसे सोया हुआ किसी का नसीब
जैसे आशिक के दिल में फिक्रेरकीब
जैसे खामोश जांकनी का समां
जैसे उठता हुआ चिता से धुआं
जैसे बेबस हो जुल्मतों में नजर
जैसे बेवा का मायके को सफर
दूर मंजिल का फासिला जैसे
लुट के रह जाये काफिला जैसे
कोई साज है, कोई जाम
हाय यह शाम, उदाससी शाम


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