Sunday, 31 May 2015

अजहू चेत गवांर (संत पलटू दास) प्रवचन-7

उनके अल्ताफ का इतना ही फुसूं काफी है
कम है पहले से बहुत दर्दे-जिगर आज की रात।
--उनकी कृपाओं का जादू इतना ही क्या कम है!

 उनके अल्ताफ का इतना ही फुसूं काफी है
--इतनी ही उनकी कृपा बहुतइतना ही उनका जादू-चमत्कार बहुत।

कम है पहले से बहुत दर्दे-जिगर आज की रात।
--पहले से दर्द बहुत कम हैधन्यवाद।
========================================
एक स्वर बोलो!
जीवन में आता-सा
घूम कर जाता-सा
विवश संकल्प में
जीवन जागता-सा
दूर की हेला-सा
फूलते बेला-सा
एक स्वर बोलो
एक एकस्वर बोलो
कोटि पंथों जगी
कोटि दीपों लगी
आग-सी स्पष्ट वह
स्नेह-बाती पगी
आ गई जलन को,
जीवन को बारती
देव-देव हर्ष उठे
बन गई आरती
ओंठ ज़रा खोलो
एक एकस्वर बोलो!
तुम्हारा जीवन आरती तभी बनेगा जब तुम जल उठोभभक उठो।
कोटि पंथों जगी
कोटि दीपों लगी
आग-सी स्पष्ट वह
स्नेह-बाती पगी
आ गई जलन को,
      जीवन को बारती
देव-देव हर्ष उठे
बन गई आरती!
======================================
विश्व में सबसे वही हैं वीर
है जिन्होंने आप अपने को गढ़ा
और वे ज्ञानी अगम गंभीर
है जिन्होंने आप अपने से पढ़ा।
===========================================
ले चलहां मझधार में ले चलसाहिल-साहिल क्या जाना
मेरी कुछ परवाह न करमैं खूंगर हूं तूफानों का।
भक्त तो कहता है कि किनारे-किनारे लगाकर क्या नौका को चलना!
ले चलहां मझधार में ले चलसाहिल-साहिल क्या जाना!
======================================================
सपनों के सारे शीशमहल फिर चकनाचूर हुए
जब सांझ लगी घिरनेअपने साए भी दूर हुए।
इसके पहले कि सांझ घिर जाएजागो! अजहूं चेत गंवार!
-----------------------------------------------------------

ढल गया सूरजउदासी छा गई
सांवरी-सी सांझ सहसा आ गई
पंथ थे उन्मुक्तक्यों कर रुक गए
क्यों धरा की ओर सहसा झुक गए
दृष्टि काली डोर से टकरा गई
सांवरी-सी सांझ सहसा आ गई।
अनमनी धरतीगगन है अनमना
रह गया सपना कि जैसे अधबना
घिर गए बादल बहुत से सुरमई
सांवरी-सी सांझ सहसा आ गई।
सूर्य के अंतिम किरण-सर छूटते
और जल-दर्पण वहीं पर टूटते
टूटते ही बिंब लौ टूटे गई
सांवरी-सी सांझ सहसा आ गई।
==============================================
सीस उतारै हाथ सेसहज आसिकी नाहिं।।
सहज आसिकी नाहिंखांड खाने को नाहीं।
झूठ आसिकी करैमुलुक में जूती खाहीं।।
जीते जी मरि जायकरै ना तन की आसा।
आसिक का दिन रातरहै सूली पर वासा।।
मान बड़ाई खोयनींद भर नाहीं सोना।
तिलभर रक्त न मांसनहीं आसिक को रोना।।
पलटू बड़े बेकूफ वेआसिक होने जाहिं।
सीस उतारै हाथ सेसहज आसिकी नाहिं।।
यह तो घर है प्रेम काखाला का घर नाहिं।।
खाला का घर नाहिंसीस जब धरै उतारी।।
हाथ-पांव कटि जायकरै ना संत करारी।
ज्यौं-ज्यौं लागै घावतेहुंत्तेहुं कदम चलावै।
सूरा रन पर जायबहुरि न जियता आवै।।
पलटू ऐसे घर महैंबड़े मरद जे जाहिं।
यह तो घर है प्रेम काखाला का घर नाहिं।।
लगन महूरत झूठ सबऔर बिगाड़ैं काम।।
और बिगाड़ैं कामसाइत जनि सोधैं कोई।
एक भरोसा नाहिंकुसल कहुवां से होई।।
जेकरे हाथै कुसलताहि का दिया बिसारी।
आपन इक चतुराईबीच में करै अनारी।।
तिनका टूटा नाहिंबिना सतगुरु की दाया।
अजहूं चेत गंवारजगत् है झूठी काया।।
पलटू सुभ दिन सुभ घड़ीयाद पड़ै जब नाम।
लगन महूरत झूठ सबऔर बिगाड़ैं काम।।

आज इतना ही।


अष्‍टावक्र: महागीता (भाग--6) प्रवचन--6

देख मत तू यह कि तेरे
कौन दायें कौन बायें
तू चला चल बसकि सब
पर प्यार की करता हवाएं
दूसरा कोई नहींविश्राम
है दुश्मन डगर पर
इसलिए जो गालियां भी दे
उसे तू दे दुआएं
बोल कड़वे भी उठा ले
गीत मैले भी घुला ले
क्योंकि बगिया के लिए
गुंजार सबका है बराबर
फूल पर हंसकर अटक तो
शूल को रोकर झटक मत
ओ पथिक! तुझ पर यहां
अधिकार सबका है बराबर
====================================
तुम्हारे रूप के अनुरूप संज्ञाएं चयन कर लूं
तुम्हारी ज्योति—किरणें देखने लायक नयन कर लूं
अभी अच्छी तरह आंखर अढ़ाई पढ़ नहीं पाया
प्रेम की व्याकरण का और गहरा अध्ययन कर लूं
निकल पाया नहीं बाहर अहम् के इस अहाते से
जरा ये बांह धरती और ये आंखें गगन कर लूं
तुम्हारे रूप के अनुरूप संज्ञाएं चयन कर लूं
तुम्हारी ज्योति —किरणें देखने लायक नयन कर लूं
=================================================================
 हवा हू
हवा में वसती हवा हूं
वही,
ही वही जो
धरा का वसती सुसंगीत मीठा गुजाती फिरी हूं
वही,
हा वही जो
सभी प्राणियों को
पिला प्रेम— आसव जिलाए हुए हूंकसम रूप की है
कसम प्रेम की है
कसम इस हृदय की
सुनो बात मेरी,
बड़ी बावली हूं
अनोखी हवा हूं
बड़ी मस्तमौलानहीं कुछ फिकर है बड़ी ही निडर हूं
जिधर चाहती हूं
उधर घूमती हूं
मुसाफिर अजब हूं
न घर—बार मेरा
न उद्देश्य मेरा
न इच्छा किसी की
न आशा किसी की
प्रेमी
न दुश्मन
जिधर चाहती हूं उधर घूमती हूंहवा हूं
हवा में वसती हवा हूं
जहां से चली मैं
जहां को गयी मैं
शहरगांवबस्ती
नदीरेतनिर्जन
हरे खेतपोखर
झुलाती चली मैं,
झुमाती चली मैं,
हंसी जोर से मैं
हंसी सब दिशाएं
हंसे लहलहाते
हरे खेत सारे
हंसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी
वसती हवा में
हंसी सृष्टि सारी
हवा हूं
हवा में
वसती हवा हूं।
====================================


अष्‍टावक्र: महागीता (भाग--6) प्रवचन--7

कंठ से मृदुगान आकर ओंठ तक
एक सिसकी प्राय होकर रह गये
दर्द से असहाय होकर रह गये
हम बड़े निरुपाय होकर रह गये
फिर वही नासूर उभरे वक्त के
एक बेबस हाय होकर रह गये
हाट खुशियों की लगायी थी यहां
अश्रु के व्यवसाय होकर रह गये
पग पहुंचते ही प्रणय—सोपान पर
स्वप्न सब कृशकाय होकर रह गये
=========================================
पनपने दे जरा आदत निगाहों को अंधेरों की
अंधेरे में अंधेरा रोशनी के काम आएगा
न जाने दर्द को दिल अब कहां आराम आएगा
जहां यह उम्र सिर रख दे कहां वह धाम आएगा
अभी कुछ और बढ़ने दे पलक पर इस समुंदर को
तभी तो मोतियों का और ज्यादा दाम आएगा
===============================================
पत्थर गड़े हुए हैं अक्षर मिटे हुए
अशांत दूरियों का अंदाज कौन दे
हर ओंठ पर जड़ी है गीतों की बेकसी
फिर पांव को थिरकने का राज कौन दे
==================================================
रात है
सो गयी दुनिया थकन से चूर
नींद में भरपूर
कुछ क्षणों को जिंदगी की विषमता
कटुता हुई है दूर
एक—सी आंखें सभी की
एक—सी है रैन
जागती आंखें उसी की
है न जिसको चैन
मैं नहीं यह चाहता सोता रहे जग
हो सदा ही रैन,
चाहता हूं किंतु,
कर्मठ—दिवस में भी नींद—सा हो चैन
सुनो फिर से—
मैं नहीं यह चाहता सोता रहे जग
हो सदा ही रैन,
चाहता हूं किंतु,
कर्मठ—दिवस में भी नींद—सा हो चैन
==========================================
सिमटकर आज बांहों में चलो आकाश तो आया
उतरकर एक टुकड़ा चांदनी का पास तो आया
ठहरते थे जहां पर आंसुओ के काफिले आकर
अचानक उन किवाड़ों के किनारे हास तो आया
अभी तक पतझरों से ही हुआ था उम्र का परिचय
चलो वातायनों से फिर मलय—वातास तो आया
======================================================
हर पत्ते पर है बूंद नयी
हर बूंद लिये प्रतिबिंब नया
प्रतिबिंब तुम्हारे अंतर का
अंकुर के उर में उतर गया
भर गयी स्नेह की मधुगगरी
गगरी के बादल बिखर गये
======================================================
बात इतनी सी कहानी हो गयी
एक चूनर और धानी हो गयी
गंध ले जाती बिना मांगे हवा
देह जब से रातरानी हो गयी
उम्र अचानक हीर हो गयी
निर्धन नजर अमीर हो गयी
एक दस्तूर किया तुमने
प्यार मशहूर किया तुमने
काच का रूप तराश दिया
एक कोहनूर किया तुमने
सेहरा को सागर
सूखी नदी को पूर किया तुमने
पिलाकर प्राणों को मदिरा
नशे में चूर किया तुमने
बात इतनी सी कहानी हो गयी
एक चूनर और धानी हो गयी
========================================
गंध ले जाती बिना मांगे हवा
देह जब से रातरानी हो गयी
उम्र अचानक हीर हो गयी
निर्धन नजर अमीर हो गयी
एक दस्तूर किया तुमने
प्यार मशहूर किया तुमने
काच का रूप तराश दिया
एक कोहनूर किया तुमने
सेहरा को सागर
सूखी नदी को पूर किया तुमने
पिलाकर प्राणों को मदिरा
नशे में चूर किया तुमने
=======================================
धरणी पर छायी हरियाली
सजी कली—कुसुमों से डाली
मयूरीमधुबन—मधुबन नाच
मयूरी नाचमगन मन नाच
समीरण सौरभ सरसाता
घुमड़ घन मधुकण बरसाता
मयूरी नाचमदिर मन नाच
मयूरी नाचमगन मन नाच
=======================================
जिसके स्वागत में नभ ने
बरसा दी हैं जोहनियां सभी
और बड़ ने छाव बिछा डाली है वह तू ऊषा
मेरी आंखों पर तेरा स्वागत है पत्तों की श्यामता के
द्वीप डुबोते हुए
हुस्न—हिना की गंध ज्वार सी
हरित श्वेत जो उदय हुई है
वह तू ऊषा
मेरी आंखों पर तेरा स्वागत है
==============================================
 आए घनश्याम,
श्लथ हरित कंचुकी
वसुधा व्रजबालिका
उर्मिल जलधि
स्त्रस्त काची—रणित
सुरभित समीर
श्वास पुकल कदंब मल्लिका
वनवृंद वृदाधाम
आए घनश्याम,
चकित तड़ित
पीत पट
मंद रव
वेणु बरसता सरस स्वर
मंद—मंद विंदु
सस्मित राका ज्यों
खलपूर्ण इंदु
आप
गत ताप
प्रमुदित चित्त धेणु
जल तल सकल अभिराम
आए घनश्याम
==================================
दुनिया के इस मोह जलधि में
किसके लिए उठूं उभरूं अब?

 बिखर गयी धीरज की पूंजी
सुख —सपने नीलाम हो गये
शीशा बिकाकिंतु रतन के
मंसूबे नाकाम हो गये
ऊपर की इस चमक —दमक में
किसके लिए दहूं निखरूं अब?

 हाट—बाट की भीड छट गयी
मिला न कोई मेरा गाहक
मैं अनचाहा खड़ा रह गया
व्यर्थ गयी सब मेहनत नाहक
बीत गयी सज— धज की बेला
किसके लिए बनूं संवरूं अब?

 प्रात गया दोपहरी के संग
आगे दिखती रीती संध्या
कातर प्रेत खड़े आंसू के
ज्योति हो गयी जैसे बंध्या
चला—चली की इस बेला में
किसके लिए रहूं ठहरूं अब?
देखोखोलकर आंख देखो। जिसे तुम जीवन कहते होबिलकुल व्यर्थ है। जिसे तुम जीवन कहते होवहां जरा— भी सच नहीं। आंख भरके देखोछूटने—छाटने की बातें न करो। पागलपन की बातें न करो। होश संभालोदेखो गौर से। जिसने गौर से देखाव्यर्थ से छूट जाता है। और जिसने गौर से नहीं देखा और वैसे ही छाती पीटता रहा कि हे प्रभुकब छूटूगाकब तक प्रतीक्षावह छाती ही पीटता रहता है।
तुम यही जन्मों—जन्मों से कर रहे हो। और अब कब तक करते रहोगेतुम मुझसे पूछते होकब तक प्रतीक्षामैं तुमसे पूछता हूंकब तक प्रतीक्षा?

आज इतना ही।

=========================================


अष्‍टावक्र: महागीता (भाग--6) प्रवचन--8

थे यहां मधुकलश सारे विष भरे
असलियत मालूम हुई जब पी लिये
देह पर तो लग गये टीके मगर
रह गये सब घाव मन के अनसिये
========================================
हम निजी घर में किरायेदार से रहते रहे
दर्द दिल का बस दरो —दीवार से कहते रहे
दूर तक फैला हुआ एक रेत का सैलाब—सा
जिस तरफ सागर समझ जलधार से बहते रहे
यह जिसको तुम संसार कह रहे हो और बहे जा रहे हो—यह पानावह पानामिलता कभी किसी को कुछ यहां! सब मृगमरीचिका है।
दूर तक फैला हुआ एक रेत का सैलाब सा
जिस तरफ सागर समझ जलधार से बहते रहे
और इस सागर मेंरेत के सागर में तुम छोटी सी जलधार की तरह अपने ध्यान को बहाए जा रहे हो कि यहां कहीं सागर होगामिल जाएगातृप्ति होगीमिलन होगा। खो जाओगे इस मरुस्थल में! यहां कोई मरूद्यान भी नहीं है।
हम निजी घर में किरायेदार से रहते रहे
दर्द दिल का बस दरो—दीवार से कहते रहे
==================================================