Tuesday, 2 June 2015

हंसा तो मोती चूने–संत लाल (ओशो) प्रवचन–01

कही से आग मिले
इस बरफीली जगह में
कहीं से आच मिले
इस ठंडे शहर में
कहीं से राग उठे
इस वीराने में
कहीं शहनाई बजे
इस मनहूस मरघटी जमाने में
कहीं आम का पेड़ बौराये
सुनसान को तोड़े कोयल
हवा तेज और तेज चले
गले लगे शरमाये
दोपहरी भन्नाती है
धूप गरम और- और गरमाती है
मैं रुकी हूं अभी भी
किसी शाम के लिए
ये वक्त ठहरे ठहर जाये
किसी लिये गये नाम के लिए
कहीं से आग मिले
इस बरफीली जगह में
कहीं से आंच मिले
इस ठंडे शहर में कहीं से रण उठे
इस वीराने में
कहीं शहनाई बजे
इस मनहूस मरघटी जमाने में
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अंतिम निमंत्रण आज है!
वरदान पाने के लिए,
निर्माण पाने के लिए,
युग-युग तुम्हारे पास पंछी नीड़ में आता रहा
अंतिम निमंत्रण आज है!
लघु श्वास के दो तार पर,
विश्वास के आधार पर,
जड़ विश्व के चेतन नियम हंस भूल ठुकराता रहा;
अंतिम निमंत्रण आज है!
संतोष पलकों से ढुलक,
बहता रहा था शाम तक,
नीरव निशा के शून्य में दृग-सिंधु यह गाता रहा।
वो दिन होगा जहां के गम न होंगे
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वो दिन जब इस जहां में हम न होंगे
ये नूर-ओ-नार-ओ नग्मा सब रहेंगे
तेरी दुनिया में लेकिन हम न होंगे।
झुके होंगे जो उनके आस्तां पर,
वो कोई और होंगे हम न होंगे।
फकत यह जानने में उस गुजरी,
वो कैसे और कब बरहम न होंगे।
बहुत होंगे मेरे अरमान पूरे,
मेरे अरमान फिर भी कम न होंगे।
चले हैं अश्कइक्याल-ए-गूनह को
गुनाह उनके मगर यूं कम न होंगे।
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हमको दुश्नाम की खू है, तू मगर देख कहीं
शहद होंठों का तेरे जहरे -हलाहिल न बने।
तुन्दी-ए -शौक में तुफान से लड़ने वाले,
मसलहतकोशी-ए -साहिल तेरी मंजिल न बने।
जिस सफीने के मुकद्दर में तलातुम ही नहीं
वो शनासा-ए -रमूज -ए -लब -ए -साहिल न बने।
चारा-ए -दर्द -ए-जिगर, मरहम -ए आजार बने
जो नजर तेरी खूदा-रा सम्म-ए- कातिल न बने।
हाय क्या दौर है, पहलू में धड़कती हुई शै
संग या खार बने दर्द भरा दिल न बने।
अपनी किस्मत को सराहे या गिला करते रहे
जो कभी तीर -ए -नजर का तेरे घायल न बने।
 
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1 comment:

  1. भाई इन कविताओं के लेखक कौन है वो भी बताओ भाई। विनती है 🙏

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