Friday, 5 June 2015

अथातो भक्‍ति जिज्ञासा (भाग-1) प्रवचन–18

अथातो भक्‍ति जिज्ञासा (भाग-1) प्रवचन–18


सांस लेना भी कैसी आदत है
जीए जाना भी क्या रवायत है
कोई आहट नहीं बदन में कहीं
कोई साया नहीं है आंखों में
पांव बेहिस हैं, चलते जाते हैं
इक सफर है जो बहता रहता है
कितने वर्षो से कितनी सदियों से
जिए जाते हैं जिए जाते हैं
आदतें भी अजीब होती हैं
…………………………………………………………….
तुमको देखा
अलस सुबह
गीली मिट्टी से अंकुर फूटे
सहजसहज
हिलती फसल
बालियां
नजियायी भारी
पके आम चुगे बागों में
लूटे
उड़ कर गई
जहां से
वह नन्हीं सी
नीली चिड़िया
हरी हो गई डाली
फुनगी
अंग कसे बंधन टूटे
दिखा गांव चौमास, भुरारा
रितु का चढ़ा हुआ रंग
पेड़ों पर
परस तुम्हारा
हवा कंपाती
जलतल
कौरे, नाचे, भीत भितौने
टूटेफूटे
तुमको देखा
एक सांझ सूर्य अस्त था
पेड़ों में बिंध कर
लाली फैली
दूरदूर तक
फूले कासों पर
सजल आंख से
अंजन छूटे
तुमको देखा
अलस सुबह
गीली मिट्टी से अंकुर फूटे
दिखा गांव चौमास, भुरारा
रितु का चढ़ा हुआ रंग
पेड़ों पर परस तुम्हारा
…………………………………………………..
आग में जल, पर धुआं बनकर न लौ पर छा
प्यार है ज्वालाइसे जी से लगाए जा
बेकली को कल समझ, अभिशाप को वरदान
है यही उत्सर्गव्याकुल प्राण की पहचान
जग समझ पाया न हंसमुख पत्थरों का मोल
किंतु फिर भी तू न अंतस की मिटन को खोल
दाह वह कैसा न जो परितप्त कर दे प्राण
वह तृषा कैसी न जिसमें सूख जाएं गान
प्यार कर लेकिन प्रणय की रागिनी मत गा
आग में जल, पर धुआं बन कर न लौ पर छा
………………………………………………………………
दिन निकलने दे
जरा सा दिन निकलने दे!
रास्ते आधेअधूरे से
दिख रहे जो तानपूरे से
तार में सरगम सम्हलने दे
थम, जरा सा दिन निकलने दे!
राग जब आकार पाएगा
स्याह घेरा टूट जाएगा
खून, स्याही में उबलने दे
थम, जरा सा दिन निकलने दे!
उंगलियां खुद तार को छूकर
व्योम को ले आएंगी भू पर
घाटियों को आंख मलने दे
थम, जरा सा दिन निकलने दे!
……………………………………………………
पत्थर शब्दों में गढ़ मूरत
जिसमें दीखे जग की सूरत
सूरत जो तनाव वाली हो
चेतन हो, अलाव वाली हो
शुभ के लिए सजग है तो फिर
कागज में मत देख महत
तम से लड़ता हुआ सवेरा
मैंका खंडहर हमका घेरा
तहखानों के राज खोलती
शैली जिसकी आज जरूरत
पत्थर शब्दों में गढ़ मूरत
कागज में मत देख महत
………………………………………….
बैठ मत बेकार
पत्थरों पर पत्थरों को मार
चिनगारी उठेगी
एक चिनगी
एक क्षण को, प्रण बनाएगी
नींद में डूबी हुई
बस्ती जगाएगी
जागरण : खिड़की, झरोखा, द्वार
बैठ मत बेकार पत्थरों पर पत्थरों को मार
चिनगारी उठेगी
द्वार जिनके बंद हैं जिंदे नहीं हैं वे
हाय, बंदों के लिए
बंदे नहीं हैं वे
मांगती है आदमीयत धार
बैठ मत बेकार पत्थरों पर पत्थरों को मार
चिनगारी उठेगी।
…………………………………………………………
आओ फिर नज्म कहें
फिर किसी दर्द को सहला के सुजा लें आखें
फिर किसी दुखती हुई रग से छुआ दें नश्तर
या किसी भूली हुई राह पे मुड़कर इक बार
नाम लेकर किसी हमनाम को आवाज ही दे लें
फिर कोई नज्म कहें
आओ फिर कोई नज्म कहें
……………………………………………………….
मगर निठुर न तुम रुके, मगर निठुर न तुम रुके
पुकारता रहा हृदय, पुकारते रहे नयन
पुकारती रही सुहागदीप की किरनकिरन
निशादिशा, मिलन विरह विदग्ध टेरते रहे
कराहती रही सलज्ज सेज की शिकनशिकन
असंख्य श्वास बन समीर पथ बुहारते रहे
मगर निठुर न तुम रुके, मगर निठुर न तुम रुके
…………………………………………………………………..


No comments:

Post a Comment