Friday, 5 June 2015

अजहू चेत गवांर (संत पलटू दास) प्रवचन–7

सीस उतारै हाथ से, सहज आसिकी नाहिं।।
सहज आसिकी नाहिं, खांड खाने को नाहीं।
झूठ आसिकी करै, मुलुक में जूती खाहीं।।
जीते जी मरि जाय, करै ना तन की आसा।
आसिक का दिन रात रहै सूली उपर बासा।।
मान बड़ाई खोय नींद भर नाहीं सोना।
तिलभर रक्त न मांस, नहीं आसिक को रोना।।
पलटू बड़े बेकूफ वे, आसिक होने जाहिं।
सीस उतारै हाथ से, सहज आसिकी नाहिं।।10।।

यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं।।
खाला का घर नाहिं, सीस जब धरै उतारी।
हाथ-पांव कटि जाय, करै ना संत करारी।।
ज्यौं-ज्यौं लागै घाव, तेहुंत्तेहुं कदम चलावै।
सूरा रन पर जाय, बहुरि न जियता आवै।।
पलटू ऐसे घर महैं, बड़े मरद जे जाहिं।
यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं।।11।।

लगन महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम।।
और बिगाड़ैं काम, साइत जनि सोधैं कोई।
एक भरोसा नाहिं, कुसल कहुवां से होई।।
जेकरे हाथै कुसल, ताहि को दिया बिसारी।
आपन इक चतुराई बीच में करै अनारी।।
तिनका टूटै नाहिं बिना सतगुरु की दाया।
अजहूं चेत गंवार, जगत् है झूठी काया।।
पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी, याद पड़ै जब नाम।
लगन महूरत झूठ सब, और बिगाड़ै काम।।12।।
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मेरे हर लफ्ज में बेताब मेरा सोजे-दरूं
मेरी हर सांस मुहब्बत का धुआं है साकी।
और उसकी श्वास-श्वास में बस एक ही जिक्र है : मोहब्बत! मोहब्बत ! प्रेम के स्वर ही उसमें उठते हैं।
मुहब्बत इक तपिश-ए-नातमाम होती है
न सुबह होती है इसकी, न शाम होती है।
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उनके अल्ताफ का इतना ही फुसूं काफी है
कम है पहले से बहुत दर्दे-जिगर आज की रात।
उनकी कृपाओं का जादू इतना ही क्या कम है!
उनके अल्ताफ का इतना ही फुसूं काफी है
इतनी ही उनकी कृपा बहुत, इतना ही उनका जादू-चमत्कार बहुत।
कम है पहले से बहुत दर्दे-जिगर आज की रात।
पहले से दर्द बहुत कम है, धन्यवाद।
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एक स्वर बोलो!
जीवन में आता-सा
घूम कर जाता-सा
विवश संकल्प में
जीवन जागता-सा
दूर की हेला-सा
फूलते बेला-सा
एक स्वर बोलो
एक एकस्वर बोलो
कोटि पंथों जगी
कोटि दीपों लगी
आग-सी स्पष्ट वह
स्नेह-बाती पगी
आ गई जलन को,
जीवन को बारती
देव-देव हर्ष उठे
बन गई आरती
ओंठ ज़रा खोलो
एक एकस्वर बोलो!
तुम्हारा जीवन आरती तभी बनेगा जब तुम जल उठो, भभक उठो।
कोटि पंथों जगी
कोटि दीपों लगी
आग-सी स्पष्ट वह
स्नेह-बाती पगी
आ गई जलन को,
जीवन को बारती
देव-देव हर्ष उठे
बन गई आरती!
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दिल रहे या न रहे जख्म भरें या न भरें
चारा-साजों की खुशामद मुझे मंजूर नहीं।
दिल रहे या न रहे, यह बचूं या न बचूं, यह जिंदगी बचे या न बचे . . .जख्म भरें या न भरें, चारा-साजों की खुशामद मुझे मंजूर नहीं’ . . .लेकिन वैद्यों की खुशामद न करने जाऊंगा कि मुझे बचाओ, कि ये मेरे घाव भर दो। मैं कोई औषधियां न खोजूंगा जीवन को चलाए रखने की। मैं घावों के लिए कोई मलहम तलाश करने न जाऊंगा।
दिन रहे या न रहे, जख्म भरें या न भरें
चारा-साजों की खुशामद मुझे मंजूर नहीं।
जिसको आखिरी चारा-साज मिल गया, जिसको असली वैद्य मिल गया, जिसको परमात्मा मिल गया, अब तो उसके हाथ से लगे हुए घाव भी कमल के फूल हो जाते हैं।
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विश्व में सबसे वही हैं वीर
है जिन्होंने आप अपने को गढ़ा
और वे ज्ञानी अगम गंभीर
है जिन्होंने आप अपने से पढ़ा।
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ले चल, हां मझधार में ले चल, साहिल-साहिल क्या जाना
मेरी कुछ परवाह न कर, मैं खूंगर हूं तूफानों का।
भक्त तो कहता है कि किनारे-किनारे लगाकर क्या नौका को चलना!
ले चल, हां मझधार में ले चल, साहिल-साहिल क्या जाना!
यह भी कोई जाना हैहोशियारी-होशियारी और चतुराई और गणित और हिसाब! हिसाब-हिसाब में ही बंधे भी कोई जाना होता है!
ले चल, हां मंझधार में ले चल, साहिल-साहिल क्या जाना
मेरी कुछ परवाह न कर, मैं खूंगर हूं तूफानों का।
जिसने परमात्मा के तूफान को झेलने की तैयारी दिखला दी, अब सब तूफान छोटे हैं। अब मंझधार में नौका ले जाई जा सकती है। अब तो डूब जाने में भी मजा है। अब तो डूब जाने में ही मजा है।
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सपनों के सारे शीशमहल फिर चकनाचूर हुए
जब सांझ लगी घिरने, अपने साए भी दूर हुए।
इसके पहले कि सांझ घिर जाए, जागो! अजहूं चेत गंवार!
ढल गया सूरज, उदासी छा गई
सांवरी-सी सांझ सहसा आ गई
पंथ थे उन्मुक्त, क्यों कर रुक गए
क्यों धरा की ओर सहसा झुक गए
दृष्टि काली डोर से टकरा गई
सांवरी-सी सांझ सहसा आ गई।
अनमनी धरती, गगन है अनमना
रह गया सपना कि जैसे अधबना
घिर गए बादल बहुत से सुरमई
सांवरी-सी सांझ सहसा आ गई।
सूर्य के अंतिम किरण-सर छूटते
और जल-दर्पण वहीं पर टूटते
टूटते ही बिंब लौ टूटे गई
सांवरी-सी सांझ सहसा आ गई।
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