पतियां हिली नहीं
पंखुरी खिली नहीं
एक अवधि बीत गई बोझिल चुपचाप
कौन दे गया ऐसा शाप
बगुलों की पांत नहीं, नंगा आकाश
चूक गए मौसम के सारे विश्वास
मौन दिशाएं सभी
सूनी राहें सभी
झेल रहा वक्त ओह, कैसा संताप
कौन—सा किया ऐसा पाप
बंद है हवाएं भी, फीके सब रंग
भूल गए राग—फाग चंग और मृदंग
रंग चटकते कहां
कदम अटकते कहां
सन्नाटे का मारा समय रहा कांप
सूंघ गया कैसा यह सांप
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प्रश्नों की आधी में उजड़ रहे
व्यक्ति।
चेतन को लील रही अवचेतन शक्ति।।
सीमाएं काट रहे बहुताली स्वर।
विस्मय से बांट रहे लघुता का ज्वर।।
निर्णय से दूर बहे जाते हैं कूल।
यहां—वहां डूब रहे मन के मस्तूल।।
संशय के कुहरे में सिमट रहे सूर्य।
परजीवी लगते हैं शब्दों के तूर्य।।
लघुतम आधारों पर बंटे हुए दल।
उलटे मुंह लटक रहा पीढ़ी का बल।।
चौरहे खांस रहा चिंतक का दर्प।
आकृति को डसे हुए विकृति का सर्प।।
भ्रम के परिवृत्तों में दबे हुए
क्षण।
बौने से लगते हैं बुनियादी प्रण।।
तंत्रों के चक्रव्यूह मंत्रो के
दंश।
अमृत को खोज रहे विषधर के वंश।।
आकाशी मुस्काने खंडित संदर्भ।
समय की ढलानों पर पिघल रहे गर्भ।।
रात के उजाले में बुझे हुए पक्ष।
आयातित लगते हैं अनुभव के पक्ष।।
आदमी का जैसे गर्भपात ही हो जाता है, उसकी आत्मा का जन्म ही नहीं हो
पाता।
समय की ढलानों पर पिघल रहे गर्भ।
और आदमी उलझा है प्रश्नों की आधी
में!
प्रश्नों की आधी में उजड़ रहे
व्यक्ति।
चेतन को लील रही अवचेतन शक्ति।।
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मंजरे—तस्वीर दर्दे—दिल मिटा सकता नहीं
आईना पानी तो रखता है पिला सकता
नहीं
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फना में बकें—सोजा का असर पैदा कर ऐं बुलबुल
ये आहें कोई आहें हैं, ये नाले कोई नाले हैं
हयाते—जाविदा आई है जां—बाजों के हिस्से में
हमेंशा जीने वाले हैं ये जितने मरने
वाले हैं
मोहब्बत में गिरां—पा हो न इतना खौफे—रहजन से
जो इस रास्ते में लुट जाएं बड़ी
तकदीर वाले हैं
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बीज बो गया कोई
पेडू तो उगाए हम
मरु की नीरसता को तोड कर
खंड—खंड बिखरी
सौंदर्य की झलकियों को
छविगृह में एकजुट सजाएं हम
शिवजी के मस्तक की
गंगधार, जन—जन तक
भगीरथ बन कर पहुंचाएं हम
बोल दे गया कोई
गीत गुनगुनाए हम
सुर—गंगा सागर तक छोड़ कर
गांव की जुन्हाई को
प्रेम की पुकारों से
रीझ—रीझ शहर तक बुलाएं हम
धूप की लुनाई को
रंग की बुनाई को
संध भरे मन तक पहुंचाएं हम
नींव भर गया कोई
मंजिलें उठाएं हम
जीवन की ईंट—ईंट जोड़ कर
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खंड—खंड बिखरी
सौंदर्य की झलकियों को
छविगृह में एकजुट सजाएं हम
शिवजी के मस्तक की
गंगधार, जन—जन तक
भगीरथ बन कर पहुंचाएं हम
मगर पहले तुम्हारे ऊपर तो गंगा उतरे, तो फिर तुम जन—जन तक पहुंचा सकते हो! तुम्हारी
प्यास बुझे तो तुम न मालूम कितनों की प्यास बुझा सकते हो! तुम्हारी ज्योति जले तो
तुम न मालूम कितनों की ज्योति जला सकते हो! ज्योति से ज्योति जले!
बोल दे गया कोई
गीत गुनगुनाए हम
सुर—गंगा सागर तक छोड़ कर
तुम मिटो तो परमात्मा तुम्हें गीत
दे। तुम हटो तो तुम्हारी शून्यता को उसकी पूर्णता भर दे। फिर गुनगुनाओ। फिर
गुनगुनाने में मजा है। गीत तुम्हारे नहीं होने चाहिए। गीत उसके, गुनगुनाना तुम्हारा। गंगा उसकी, प्राण तुम्हारे। नाचो तुम, लेकिन नाचे वस्तुत: वही। इतना कर
सको तो भक्ति का पहला कदम पूरा होता है। और यह न हो सके तो जीवन व्यर्थ है।
कान वो कान है, जिसने तेरी आवाज सुनी
आंख वो आंख है, जिसने तेरा जल्वा देखा
याद रखना, अंधे हो, अगर परमात्मा नहीं देखा तो। बहरे हो, अगर परमात्मा नहीं सुना तो। लंगड़े
हो,
लूले हो, अगर वह तुम में नहीं नाचा। मुर्दा
हो,
अगर वह तुम में नहीं जीआ।
कान वो कान हैं, जिसने तेरी आवाज सुनी
आंख वो आंख है, जिसने तेरा जल्वा देखा
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जाहिद के कस्रे—जुहद की बुनियाद है यही
मस्जिद बहुत करीब थी मैखाना दूर था
कई लोग इसीलिए मस्जिद में बैठे हैं।
कारण कुल इतना ही है!
जाहिद के कस्रे—जुहद की बुनियाद है यही
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कौन जाने, कौन समझे, चाकदामानी का राज
तुममें ऐ अहले बसीरत! कोई दीवाना भी
है
पंडितों से पूछ रहा है कवि।
कौन जाने, कौन समझे, चाकदामानी का राज
मेरे फटे हुए कपड़ों का, मेरी दीवानगी का, मेरे पागलपन का कौन रहस्य समझेगा?
तुममें ऐ अहले बसीरत!
ऐं ज्ञानियो, ऐं
पंडितो!
तुममें ऐ अहले बसीरत! कोई दीवाना भी
है
अगर तुममें कोई दीवाना हो तो उससे
मैं कुछ कहूं, तो
उससे कुछ बात बने, तो
वह कुछ सुने और समझे।
पंडित नहीं बुद्धों को पहचान पाते, सरल—चित्त लोग पहचान लेते हैं। सीधे—सादे लोग पहचान लेते हैं। ज्ञानी
वंचित रह जाते हैं, अज्ञानी
पहचान लेते हैं। पुण्यात्मा वंचित रह जाते हैं, पापी पहचान लेते हैं, कारण? पुण्यात्मा के पास अहंकार होता है, पापी के पास तो सिर झुका है। वह तो
अपने पाप से दबा है। वह तो अपने को असहाय पा रहा है। वह तो अपने को गुनहगार पाता
है। वह तो आकांक्षा करता है कि प्रभु उसे क्षमा करे। उसकी भूलें इतनी हैं कि किस
बलबूते पर अभिमान करे? किस
बलबूते पर अहंकार करे? लेकिन
पुण्यात्मा है— जिसने
व्रत किए, उपवास
किए, मंदिर
बनाया, तीर्थ
गया, गंगा—स्नान किया—उसके पास तो अहंकार है आभूषणों में
सजा, चमकता—दमकता! वह नहीं समझ पाएगा।
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बढ़ती ही जाती है बस्ती की भीड़,
बौने हो जाते इरादों के चीड़,
कमरे में टैग जातीं रातें अधनंगी,
उम्र की जटाओं में उलझन बेढंगी,
ऐसा क्यों होता है रोज—रोज?
करनी ही होगी अब कारण की खोज।
मितलाई सुबह और पितलाई सांझ,
सन्निपाती पिक और अमराई बांझ,
मुक्ति की आकांक्षा में नुची हुई
पांखें,
हवाएं टटोलती धृतराष्ट्री आंखें?
कहां गया जीवन का ओज?
करनी ही होगी अब खोज।
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वही है बेखुदे—नाकाम तुम समझ लेना
शराबखाने से जो होशियार आएगा
शराबखाने से जो होशियार आ जाए, वही नासमझ है। वह बेकाम आदमी है, काम का ही नहीं है। वही है बेखुदे—नाकाम तुम समझ लेना
शराबखाने से जो होशियार आएगा
वहां से तो पीकर ही आना चाहिए, डूब कर ही आना चहिए, तरबतर होकर आना चाहिए!
हम उसे देखा किए जब तक हमें गफलत
रही
पड़ गया आंखों पे पर्दा होश आ जाने
के बाद
उसे देखना है तो एक गफलत सीखनी होगी, एक मस्ती सीखनी होगी।
हम उसे देखा किए जब तक हमें गफलत
रही
पड़ गया आंखों पे पर्दा होश आ जाने
के बाद
होश आते ही अहंकार आ जाता है। जैसे
ही मैं आया, वह
विदा हो गया। जब तक मैं नही है तब तक वही है, केवल वही है।
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क्या मेरी गति होगी!
हस्ताक्षर करने हैं समय के गुलाबों
पर
चाहे यह मौसम का शीशमहल टूट जाए
कब तक हम शब्दों की अल्पना रचाएंगे
परिवर्तित धारा में सब कुछ बह
जाएंगे
ध्वनियों के आर—पार दूधिया उजाले में
शंखों के टुकड़ों से कितने दिन
गाएंगे
संस्कृतियां लिखनी हैं उन सूने
पत्रों पर,
चाहे अधुनातन की परिभाषा बदल जाए।
विवशता दिखाने से, उम्र नहीं बढ़ती है
भीतर की सतहों पर धूप नहीं चढ़ती है
मोम—जड़ी दीवारें हाथ में अरधनी ले
भटक रही भीड़ कहीं कील नहीं गड़ती है
बेनकाब करना है सूरज के पुत्रों को,
चाहे इन चित्रों का रंगबोध पिघल
जाए।
रुग्ण हुए शब्दों का अर्थ कौन
जानेगा
अवतारी पीढ़ी की बात कौन मानेगा
विष—बुझी हवाओं में निर्णय के चक्रों से
दृष्टि के भेद बदल युद्ध कौन ठानेगा
नामकरण करना है नये सुर्ख सपनों का,
चाहे यह भावलोक और कहीं चला जाए।
ध्वनियों के आर—पार दूधिया उजाले में
शंखो के टुकड़ों से कितने दिन गाएंगे
बेनकाब करना है सूरज के पुत्रों को,
चाहे इन चित्रों का रंगबोध पिघल
जाए।
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वो अगर याद करें हमको तो भूलें
किसको
हम अगर उनको भुलाए तो किसे याद करें
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बस रुखे—यार से उठता हुआ पर्दा देखा
फिर खबर ही न रही, क्या कहें फिर क्या देखा
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सबकी रचना में जीवन का अर्थ बहुत
धुंधला है
इसीलिए हम असली—नकली सब के अनुयायी हैं
जीवित शब्दों में कहने की आदत छूट
चुकी है
अंतर मन के संवादों की संज्ञा टूट
चुकी है
जैसे—तैसे सह लेने में समय गुजर जाता है
मन की सारी भाषाओं को दुनिया लूट
चुकी है
सबकी छवियों में धरती का रूप बहुत
बदला है
इसीलिए हम पूरब—पश्चिम सब के अनुयायी हैं
धारा के तट बांधू अब तो ऐसी प्यास
नहीं है
यदा—कदा प्रतिवेदन देने में विश्वास
नहीं है
इधर—उधर की कह लेने में समय गुजर जाता
है
मन की मैली चादर का कोई इतिहास नहीं
है
सबकी प्रतिभा पर आरोपित प्रश्न बहुत
छिछला है इसीलिए हम आते—जाते
सबके अनुयायी हैं
तुम जरा पूछो तो कि तुमने किसकी
बातें मान रखी हैं!
सबकी रचना में जीवन का अर्थ बहुत
धुंधला है
इसीलिए हम असली—नकली सबके अनुयायी हैं
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