ऐ दिले खुद्दार, यह अच्छा किया
वो जो एक लमहा मसर्रत का नसीबों से
मिला था,
उसको भी ठुकरा दिया।
वो मसर्रत क्या जो बन सकती न हो
तेरी कनीज
इश्क है रोजे अजल से हुक्मराने
बहरोबर
इश्क, और लमहाते इसरत का गुलाम?
जो हवा मुट्ठी में आ सकती न हो
उस हवा में सांस लेना भी हराम।
……………………………………………………..
वो मसर्रत क्या जो बन सकती न हो
तेरी कनीज।
हम उसे खुशी ही नहीं मानते। हम कहते
हैं: वह खुशी ही क्या, वह
आनंद क्या, जो
हमारी दासी न बन सके।
इश्क है रोजे अजल से हुक्मराने
बहरोबर
इश्क और लमहाते इसरत का गुलाम?
हमारी तथाकथित बुद्धिमानी, हमारी अहंकार से भरी बुद्धिमानी
कहती है कि मैं अपने प्रेम को किसी चीज पर निर्भर न होने दूंगा।
इश्क और लमहाते इसरत का गुलाम?
जो हवा मुट्ठी में आ सकती न हो
उस हवा में सांस लेना भी हराम।
………………………………………………………………
फिर गया था सिर उमर खय्याम का
जिसने कहाः आज आओ, मौज कर लें।
कल तो मरना है हमें
साथियो, इतिहास का संदेश हैः बहुजन हिताय
आज मर लें, मार लें
कल मौज करना है हमें।
मन कहता हैः आज तो मर लें, मार लें, कल मौज करना है हमें। तो मन तो उमर
खय्याम जैसे लोगों को नासमझ कहता है।
फिर गया था सिर उमर खय्याम का
जिसने कहाः आज आओ, मौज कर लें।
कल तो मरना है हमें
………………………………………………………
कब तक हवाए शौक से दिल को बचाइए,
मौसम का जो भी मशवरा हो, मान जाइए।
जब बसंत आ गया हो और जब हवाओं में
रंग हो और फूलों में गंध हो और पक्षी गीत गाने लगें, और मोर अपने पंख फैला दें, तो फिर बचाना मत।
कब तक हवाए शौक से दिल को बचाइए,
मौसम का जो भी मशवरा हो, मान जाइए।
जब बसंत आए तो अपने हृदय के द्वार
खुले छोड़ देना।
पी है अगर शराब तो कुछ लुत्फ उठाइए,
क्यों इतनी ऐतिहाद? ज़रा लड़खड़ाइए!
क्यों इतनी ऐतिहाद? इतनी सावधानी भी क्या! इतने सावधान
हो-होकर मत चलिए। यहां आ ही गए हो, अगर थोड़ी शराब पी ही ली है. . .”पी है अगर शराब तो कुछ लुत्फ उठाइए।’ तो फिर थोड़ा लुत्फ, फिर थोड़ा रंग बहने दो। फिर भीतर कोई
डोले तो डोलने दो। भीतर कोई गुनगुनाइए तो गुनगुनाने दो। रोमांच हो आए तो होने दो।
आंसू बहें तो बहने दो।
पी है अगर शराब तो कुछ लुत्फ उठाइए,
क्यों इतनी ऐतिहाद? ज़रा लड़खड़ाइए!
इतनी भी सावधानी क्या? इतनी भी होशियारी क्या? कभी तो ऐसा करो कि होशियारी को
हटाकर रख दो। कभी तो थोड़ी देर को होशियार न रहो। कभी तो थोड़ी देर के लिए निर्दोष
हो जाओ, नासमझ
हो जाओ। कभी तो थोड़ी देर के लिए फिर बालवत् हो जाओ।
जीसस ने कहा हैः “जो बच्चों की भांति हैं, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में
प्रवेश कर सकेंगे।’ ठीक
ही कहा है, सौ
प्रतिशत ठीक कहा है। इस देश में तो हम सदा से कहते रहे हैं: जो फिर से बालवत् हो
जाते हैं, वे
ही संत हैं। इसलिए संतों को द्विज कहते हैं–दुबारा उनका जन्म हो गया; वे फिर बच्चे हो गए।
हर ब्राह्मण द्विज नहीं है, खयाल रखना। क्योंकि हर ब्राह्मण
ब्राह्मण ही नहीं है। जिसने ब्रह्म को जाना, वह ब्राह्मण; और जो फिर से जन्मा। एक तो जन्म
मां-बाप से मिलता है; वह
तो सभी को मिलता है; उससे
कोई द्विज नहीं होता। और जनेऊ धारण करने से कोई द्विज नहीं होता। किसको धोखा दे रहे हो? द्विज होता है कोई, दुबारा, जब मन की धूल को हटा देता है, तर्क को समेटकर रख देता है और फिर
बालवत् चेतना को अपने भीतर उमगने देता है।
पी है अगर शराब तो कुछ लुत्फ उठाइए
क्यों इतनी ऐतिहाद? ज़रा लड़खड़ाइए।
क्या सिर्फ आशिकी मय है, नासह जियाने दिल,
अपना तो इरादा था कि जां तक गंवाइए।
डरते क्यों हो? दिल की हानि का डर लगता है? लगता है कि प्रेम में कहीं दिल डूब
न जाए, कहीं
खो न जाए?
क्या सिर्फ आशिकी मय है, नासह जियाने दिल,
क्या तुमने यही सोचा है कि प्रेम
में दिल गंवाना पड़ता है, दिल
खोना पड़ता है? यह
तो कुछ भी नहीं है। यह तो शुरुआत है। अपना तो इरादा था कि जां तक गंवाइए। प्राणों
तक को गंवाना पड़े तो भी तैयारी रखनी चाहिए, क्योंकि प्राण को गंवाकर ही कोई उस
परम प्राण को पाता है। अपने को खोकर ही कोई परमात्मा होता है।
क्या सिर्फ आशिकी मय है, नासह जियाने दिल,
अपना तो इरादा था कि जां तक गंवाइए।
वाइज बयाने खुल्द बहुत खूब है मगर
एक रोज उसकी बज्म में भी होकर आइए।
मुझे सुनते हो। मैं तुमसे जो कह रहा
हूं, यह
तो खबर है उस लोक की जो मैंने देखा। यह तो खबर है उस बज्म की, जो मैंने देखी। यह तो खबर है उस
बसंत की, जो
मैंने देखा। यह तो खबर है उन फूलों की, जो मैंने खिले देखे। इन्हें सुनकर
तुम मस्त हो जाओ यह तो ठीक; लेकिन
यह कोई अंतिम बात नहीं है–जब
तक कि तुम उस वज्म में न हो आओ; जब तक कि तुम भी उस दर्शन को उपलब्ध न हो जाओ।
तो यहां से तो प्यास लेना। अगर मस्त
ही न हुए तो प्यास ही न जागेगी। यहां तो थोड़े प्यास को बढ़ाने का मात्र उपाय है।
तुम खूब प्यासे हो जाओ। ऐसे प्यासे हो जाओ कि प्यास ही प्यास बचे, कि तुम जलने लगो प्यास से!
वाइज बयाने खुल्द बहुत खूब है मगर!
मैं कितने ही अच्छे ढंग से तुम्हें कहूं, मैं कितने ही ढंग से तुम्हें समझाऊं; लेकिन जो भी मैं कहूंगा, तुम तक पहुंचते-पहुंचते शब्द रह
जाएंगे। शराब तो खो जाएगी, “शराब’ शब्द रह जाएगा। परमात्मा तो खो
जाएगा, “परमात्मा’ शब्द तुम्हारे कानों में सुनाई
पड़ेगा। अर्थ तो मेरे ही भीतर रह जाएंगे, कोरे शब्द तुम तक पहुंचेंगे। लेकिन
कभी-कभी, जब
तुम बहुत-बहुत मुझसे जुड़े होते हो, तो इन शब्दों में अटका-अटका थोड़ा-सा शून्य भी पहुंच जाता है।
ऐसा ही समझो कि शराब के पास रखी-रखी
कोई चीज भी थोड़ा-सा नशा ले ली हो; शराब के पास रखी-रखी थोड़ी-सी शराबमय हो गई हो। मगर यह कुछ दूर तक
जानेवाली बात नहीं है। इससे यात्रा शुरू हो जाए, प्रारंभ हो जाए–पर्याप्त। जाना तो तुम्हें ही है
उसके दरबार में।
वाइज बयाने खुल्द बहुत खूब है मगर
एक रोज उसकी वज्म में होकर आइए।
मस्त होओ, तो तुम मुझसे जुड़े। बेहोश हो जाओ तो
तुम उसकी वज्म में हो आए। मस्त हुए, तो मेरा गीत तुम्हें छुआ। बेहोश हुए
तो तुम्हारा दरवाजा खुला।
…………………………………………………………………………………………………….
मौसमे गुल है, हवा इत्र फसां है साकी
देख गुलजार पर जन्नत का गुमां है
साकी।
मौसमे गुल है! बसंत आ गया! फूल
खिले। हवा इत्र फसां है साकी। और हवा में इत्र ही इत्र बिखरा हुआ है।
मौसमे गुल है, हवा इत्र फसां है साकी
देख गुलजार पर जन्नत का गुमां है
साकी।
देख, बसंत में स्वर्ग उतरा है!
आज फितरत ने गुलिस्तां में उलट दी
है नकाब
ओज पर किस्मते साहब, नजरां है साकी।
आज परमात्मा की नजर तुम पर पड़ी।
आज फितरत ने गुलिस्तां में उलट दी
है नकाब।
जब भी कोई बुद्धपुरुष–बुद्ध या महावीर या मोहम्मद या
कृष्ण या क्राइस्ट–तुम्हारे
बीच आता है तो बसंत आता है। जैसे परमात्मा अपनी नकाब उलट देता है; अपना बुर्का उठा देता है; अपना घूंघट हटा देता है। हम घूंघट
डाले हुए परमात्मा हैं। बुद्ध ने घूंघट उठा दिया।
आज फितरत ने गुलिस्तां में उलट दी
है नकाब
ओज पर किस्मते साहब, नजरां है साकी।
वो घटा झूमकर उठी, वो जवानी बरसी
आज दुनिया की हर इक चीज जवां है
साकी।
देख किस शान से मैखाने की जानिब है
रवां
दीदनी सर खुशी ए बाद कसां है साकी।
मस्त हो जाओगे तो मैखाने की ओर जिस
मस्ती से जाओगे, वह
मस्ती देखते ही बनेगी। मंदिर की ओर मुर्दे की तरह जाते हो–एकर् कत्तव्य निभाने। मस्जिद चले
जाते हो, क्योंकि
जाना है। गुरुद्वारे में सिर पटक आते हो, क्योंकि क्या करें, प्रतिष्ठा का सवाल है! लेकिन मस्ती
नहीं दिखाई पड़ती। और जब तक तुम लड़खड़ाते हुए मंदिर की तरफ न जाओगे, जैसे-जैसे मंदिर के पास पहुंचोगे
वैसे-वैसे और न लड़खड़ाने लगोगे–तब तक बेकार है। सब जाना बेकार है; व्यर्थ मेहनत न करो। और लड़खड़ाना आ
जाए तो मंदिर घर ही आ जाता है; तुम जहां हो वहीं आ जाता है।
देख किस शान से मैखाने की जानिब है
रवां
दीदनी सर खुशी है बाद कशां है साकी
ऐसे मौसम में हिमाकत है तमन्नाए
बहिश्त
ये जमीं गैरते गुलजारे जनां है
साकी।
और जब बुद्ध इस जमीन पर होते हैं, तो फिर बहिश्त की बात करना ही बेकार
है,
स्वर्ग की बात ही करना
बेकार है। ऐसे मौसम में हिमाकत है तमन्नाए बहिश्त। फिर तो हम नासमझ होंगे जो
स्वर्ग जाने की सोचें। स्वर्ग सामने है। फिर तो पागल होंगे, जो परमात्मा की बात करें।
सद्गुरु सामने है। उसमें डूबो वहीं
से द्वार मिल जाएगा। बनते-बनते बन जाएगी।
बनत बनत बनि जाई
हरि के चरण लगे रहो रे भाई।
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ऐ दिले खुद्दार, यह अच्छा किया
वो जो एक लमहा मसर्रत का नसीबों से
मिला था,
उसको भी ठुकरा दिया।
वो मसर्रत क्या जो बन सकती न हो
तेरी कनीज
इश्क है रोजे अजल से हुक्मराने
बहरोबर
इश्क, और लमहाते इसरत का गुलाम?
जो हवा मुट्ठी में आ सकती न हो
उस हवा में सांस लेना भी हराम।
……………………………………………………..
वो मसर्रत क्या जो बन सकती न हो
तेरी कनीज।
हम उसे खुशी ही नहीं मानते। हम कहते
हैं: वह खुशी ही क्या, वह
आनंद क्या, जो
हमारी दासी न बन सके।
इश्क है रोजे अजल से हुक्मराने
बहरोबर
इश्क और लमहाते इसरत का गुलाम?
हमारी तथाकथित बुद्धिमानी, हमारी अहंकार से भरी बुद्धिमानी
कहती है कि मैं अपने प्रेम को किसी चीज पर निर्भर न होने दूंगा।
इश्क और लमहाते इसरत का गुलाम?
जो हवा मुट्ठी में आ सकती न हो
उस हवा में सांस लेना भी हराम।
………………………………………………………………
फिर गया था सिर उमर खय्याम का
जिसने कहाः आज आओ, मौज कर लें।
कल तो मरना है हमें
साथियो, इतिहास का संदेश हैः बहुजन हिताय
आज मर लें, मार लें
कल मौज करना है हमें।
मन कहता हैः आज तो मर लें, मार लें, कल मौज करना है हमें। तो मन तो उमर
खय्याम जैसे लोगों को नासमझ कहता है।
फिर गया था सिर उमर खय्याम का
जिसने कहाः आज आओ, मौज कर लें।
कल तो मरना है हमें
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कब तक हवाए शौक से दिल को बचाइए,
मौसम का जो भी मशवरा हो, मान जाइए।
जब बसंत आ गया हो और जब हवाओं में
रंग हो और फूलों में गंध हो और पक्षी गीत गाने लगें, और मोर अपने पंख फैला दें, तो फिर बचाना मत।
कब तक हवाए शौक से दिल को बचाइए,
मौसम का जो भी मशवरा हो, मान जाइए।
जब बसंत आए तो अपने हृदय के द्वार
खुले छोड़ देना।
पी है अगर शराब तो कुछ लुत्फ उठाइए,
क्यों इतनी ऐतिहाद? ज़रा लड़खड़ाइए!
क्यों इतनी ऐतिहाद? इतनी सावधानी भी क्या! इतने सावधान
हो-होकर मत चलिए। यहां आ ही गए हो, अगर थोड़ी शराब पी ही ली है. . .”पी है अगर शराब तो कुछ लुत्फ उठाइए।’ तो फिर थोड़ा लुत्फ, फिर थोड़ा रंग बहने दो। फिर भीतर कोई
डोले तो डोलने दो। भीतर कोई गुनगुनाइए तो गुनगुनाने दो। रोमांच हो आए तो होने दो।
आंसू बहें तो बहने दो।
पी है अगर शराब तो कुछ लुत्फ उठाइए,
क्यों इतनी ऐतिहाद? ज़रा लड़खड़ाइए!
इतनी भी सावधानी क्या? इतनी भी होशियारी क्या? कभी तो ऐसा करो कि होशियारी को
हटाकर रख दो। कभी तो थोड़ी देर को होशियार न रहो। कभी तो थोड़ी देर के लिए निर्दोष
हो जाओ, नासमझ
हो जाओ। कभी तो थोड़ी देर के लिए फिर बालवत् हो जाओ।
जीसस ने कहा हैः “जो बच्चों की भांति हैं, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में
प्रवेश कर सकेंगे।’ ठीक
ही कहा है, सौ
प्रतिशत ठीक कहा है। इस देश में तो हम सदा से कहते रहे हैं: जो फिर से बालवत् हो
जाते हैं, वे
ही संत हैं। इसलिए संतों को द्विज कहते हैं–दुबारा उनका जन्म हो गया; वे फिर बच्चे हो गए।
हर ब्राह्मण द्विज नहीं है, खयाल रखना। क्योंकि हर ब्राह्मण
ब्राह्मण ही नहीं है। जिसने ब्रह्म को जाना, वह ब्राह्मण; और जो फिर से जन्मा। एक तो जन्म
मां-बाप से मिलता है; वह
तो सभी को मिलता है; उससे
कोई द्विज नहीं होता। और जनेऊ धारण करने से कोई द्विज नहीं होता। किसको धोखा दे रहे हो? द्विज होता है कोई, दुबारा, जब मन की धूल को हटा देता है, तर्क को समेटकर रख देता है और फिर
बालवत् चेतना को अपने भीतर उमगने देता है।
पी है अगर शराब तो कुछ लुत्फ उठाइए
क्यों इतनी ऐतिहाद? ज़रा लड़खड़ाइए।
क्या सिर्फ आशिकी मय है, नासह जियाने दिल,
अपना तो इरादा था कि जां तक गंवाइए।
डरते क्यों हो? दिल की हानि का डर लगता है? लगता है कि प्रेम में कहीं दिल डूब
न जाए, कहीं
खो न जाए?
क्या सिर्फ आशिकी मय है, नासह जियाने दिल,
क्या तुमने यही सोचा है कि प्रेम
में दिल गंवाना पड़ता है, दिल
खोना पड़ता है? यह
तो कुछ भी नहीं है। यह तो शुरुआत है। अपना तो इरादा था कि जां तक गंवाइए। प्राणों
तक को गंवाना पड़े तो भी तैयारी रखनी चाहिए, क्योंकि प्राण को गंवाकर ही कोई उस
परम प्राण को पाता है। अपने को खोकर ही कोई परमात्मा होता है।
क्या सिर्फ आशिकी मय है, नासह जियाने दिल,
अपना तो इरादा था कि जां तक गंवाइए।
वाइज बयाने खुल्द बहुत खूब है मगर
एक रोज उसकी बज्म में भी होकर आइए।
मुझे सुनते हो। मैं तुमसे जो कह रहा
हूं, यह
तो खबर है उस लोक की जो मैंने देखा। यह तो खबर है उस बज्म की, जो मैंने देखी। यह तो खबर है उस
बसंत की, जो
मैंने देखा। यह तो खबर है उन फूलों की, जो मैंने खिले देखे। इन्हें सुनकर
तुम मस्त हो जाओ यह तो ठीक; लेकिन
यह कोई अंतिम बात नहीं है–जब
तक कि तुम उस वज्म में न हो आओ; जब तक कि तुम भी उस दर्शन को उपलब्ध न हो जाओ।
तो यहां से तो प्यास लेना। अगर मस्त
ही न हुए तो प्यास ही न जागेगी। यहां तो थोड़े प्यास को बढ़ाने का मात्र उपाय है।
तुम खूब प्यासे हो जाओ। ऐसे प्यासे हो जाओ कि प्यास ही प्यास बचे, कि तुम जलने लगो प्यास से!
वाइज बयाने खुल्द बहुत खूब है मगर!
मैं कितने ही अच्छे ढंग से तुम्हें कहूं, मैं कितने ही ढंग से तुम्हें समझाऊं; लेकिन जो भी मैं कहूंगा, तुम तक पहुंचते-पहुंचते शब्द रह
जाएंगे। शराब तो खो जाएगी, “शराब’ शब्द रह जाएगा। परमात्मा तो खो
जाएगा, “परमात्मा’ शब्द तुम्हारे कानों में सुनाई
पड़ेगा। अर्थ तो मेरे ही भीतर रह जाएंगे, कोरे शब्द तुम तक पहुंचेंगे। लेकिन
कभी-कभी, जब
तुम बहुत-बहुत मुझसे जुड़े होते हो, तो इन शब्दों में अटका-अटका थोड़ा-सा शून्य भी पहुंच जाता है।
ऐसा ही समझो कि शराब के पास रखी-रखी
कोई चीज भी थोड़ा-सा नशा ले ली हो; शराब के पास रखी-रखी थोड़ी-सी शराबमय हो गई हो। मगर यह कुछ दूर तक
जानेवाली बात नहीं है। इससे यात्रा शुरू हो जाए, प्रारंभ हो जाए–पर्याप्त। जाना तो तुम्हें ही है
उसके दरबार में।
वाइज बयाने खुल्द बहुत खूब है मगर
एक रोज उसकी वज्म में होकर आइए।
मस्त होओ, तो तुम मुझसे जुड़े। बेहोश हो जाओ तो
तुम उसकी वज्म में हो आए। मस्त हुए, तो मेरा गीत तुम्हें छुआ। बेहोश हुए
तो तुम्हारा दरवाजा खुला।
…………………………………………………………………………………………………….
मौसमे गुल है, हवा इत्र फसां है साकी
देख गुलजार पर जन्नत का गुमां है
साकी।
मौसमे गुल है! बसंत आ गया! फूल
खिले। हवा इत्र फसां है साकी। और हवा में इत्र ही इत्र बिखरा हुआ है।
मौसमे गुल है, हवा इत्र फसां है साकी
देख गुलजार पर जन्नत का गुमां है
साकी।
देख, बसंत में स्वर्ग उतरा है!
आज फितरत ने गुलिस्तां में उलट दी
है नकाब
ओज पर किस्मते साहब, नजरां है साकी।
आज परमात्मा की नजर तुम पर पड़ी।
आज फितरत ने गुलिस्तां में उलट दी
है नकाब।
जब भी कोई बुद्धपुरुष–बुद्ध या महावीर या मोहम्मद या
कृष्ण या क्राइस्ट–तुम्हारे
बीच आता है तो बसंत आता है। जैसे परमात्मा अपनी नकाब उलट देता है; अपना बुर्का उठा देता है; अपना घूंघट हटा देता है। हम घूंघट
डाले हुए परमात्मा हैं। बुद्ध ने घूंघट उठा दिया।
आज फितरत ने गुलिस्तां में उलट दी
है नकाब
ओज पर किस्मते साहब, नजरां है साकी।
वो घटा झूमकर उठी, वो जवानी बरसी
आज दुनिया की हर इक चीज जवां है
साकी।
देख किस शान से मैखाने की जानिब है
रवां
दीदनी सर खुशी ए बाद कसां है साकी।
मस्त हो जाओगे तो मैखाने की ओर जिस
मस्ती से जाओगे, वह
मस्ती देखते ही बनेगी। मंदिर की ओर मुर्दे की तरह जाते हो–एकर् कत्तव्य निभाने। मस्जिद चले
जाते हो, क्योंकि
जाना है। गुरुद्वारे में सिर पटक आते हो, क्योंकि क्या करें, प्रतिष्ठा का सवाल है! लेकिन मस्ती
नहीं दिखाई पड़ती। और जब तक तुम लड़खड़ाते हुए मंदिर की तरफ न जाओगे, जैसे-जैसे मंदिर के पास पहुंचोगे
वैसे-वैसे और न लड़खड़ाने लगोगे–तब तक बेकार है। सब जाना बेकार है; व्यर्थ मेहनत न करो। और लड़खड़ाना आ
जाए तो मंदिर घर ही आ जाता है; तुम जहां हो वहीं आ जाता है।
देख किस शान से मैखाने की जानिब है
रवां
दीदनी सर खुशी है बाद कशां है साकी
ऐसे मौसम में हिमाकत है तमन्नाए
बहिश्त
ये जमीं गैरते गुलजारे जनां है
साकी।
और जब बुद्ध इस जमीन पर होते हैं, तो फिर बहिश्त की बात करना ही बेकार
है,
स्वर्ग की बात ही करना
बेकार है। ऐसे मौसम में हिमाकत है तमन्नाए बहिश्त। फिर तो हम नासमझ होंगे जो
स्वर्ग जाने की सोचें। स्वर्ग सामने है। फिर तो पागल होंगे, जो परमात्मा की बात करें।
सद्गुरु सामने है। उसमें डूबो वहीं
से द्वार मिल जाएगा। बनते-बनते बन जाएगी।
बनत बनत बनि जाई
हरि के चरण लगे रहो रे भाई।
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