‘जू जू दयारे—इश्क में बढ़ता गया
तोहमतें मिलती गईं, रुसवाइयां मिलती गईं।’
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तदबीर ही तेरी नाकिस थी, तकदीर को तू इलजाम न दे
कर सब जरा, कारे—मुश्किल सब वक्त पर आसा होते हैं
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कफस में और नशेमन में रह के देख
लिया
कहीं भी चैन मुझे जेरे— आस्मां न मिला
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हैं जाहिर उस पे चमन की हकीकतें
जिसने
शगुफ्ता लाला—ओ—गुल का मआल देखा है
नहीं है दिल में तमन्नाए—वस्त तक बाकी
फिराके—यार में इतना मलाल देखा है
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चमन वालों को या रब तूने यह किस फेर
में डाला
कभी फस्ले—खिजां आई, कभी फस्ले—बहार आई
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आशिया में न कोई जहमत न कफस में तकलीफ
सब बराबर हैं तबीयत अगर आजाद रहे
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फिर बढ़ चला तलातुमे—तूफाने— आरजू
हालांकि डूब कर अभी उभरा नहीं हूं
मैं
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तवज्जोह सर्फ करता वाकई गर नाखुदा
अपनी
तो क्यों साहिल से टकरा के किश्ती
डूबती अपनी
माझी ने थोड़ा होश रखा होता, तवज्जोह, थोड़ा ध्यान दिया होता!
तवज्जोह सर्फ करता वाकई गर नाखुदा
अपनी
अगर माझी ने थोड़ा ध्यान दिया होता, थोड़ा होश रखा होता!
तो क्यों साहिल से टकरा के किश्ती
डूबती अपनी
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सत्य है रवि, सत्य रवि की दीप्त किरणें भी
पर मनोहर बादलों की श्यामली माया
सत्य है व्यवधान अंतर, सत्य तुम मैं भी
किंतु फिर भी यह निलय का भाव घिर
आया
क्योंकि दोनों सत्य हैं तम भी उजेला
भी
मैं तुम्हारे साथ भी हूं प्रिय!
अकेला भी।
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बहुत दिनों के बाद
आज फिर हवा चली है फागुन की! मेरे
कुर्ते का छोर
तुम्हारी साड़ी का पल्ला
साथ—साथ लहराता है
मन जाने किन—किन अनजान दिशाओं में
बह जाता है
बहुत दिनों के बाद!
बहुत दिनों के बाद
आज फिर खुला आसमान
सूरज की किरन चमकती है
अंधियारे कमरे की बंदी
मेरी अनुभूति
पंख लगा कर उड़ती है
बहुत दिनों के बाद!
बहुत दिनों के बाद
आज फिर फूला पलाश है
सेमल की डालों से अंगारे झड़ते हैं
अमलताश के पत्तों से मेरे शब्द
अर्थ खोजते
धरती से आसमान तक उड़ते हैं
बहुत दिनों के बाद
आज फिर हवा चली है फागुन की!
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मौसम के जूड़े को देर तक टटोलूंगा
एक—एक गांठ को उम्र—उम्र खोलूंगा
गांठ—गांठ खोलनी है जीवन की!
मौसम के जूड़े को देर तक टटोलूंगा
एक—एक गांठ को उम्र—उम्र खोलूंगा
शायद हो गंध कहीं उन आदिम फूलों की
धुंधली तस्वीर कहीं तीर पर बबूलों
की
भूलें वे जिनको नित टोक कर, हिकार कर
कुढ़ी—कुढ़ी नजरें हों बूढ़े उसूलों की।
शबनम के कूड़े को देर तक बटोरूंगा
एक—एक कतरे को जन्म—जन्म टोलूंगा
शायद हो छंद कोई चंदा की फांक सा
मिल जाए मन कोई घुट कर छटांक सा
पलकें वे जिनको नित ताक कर, निहार कर
सूरज हो पड़ा कहीं काजली सलाख सा
संयम के पलड़े को देर तक झिझोडूगा
एक—एक खतरे को बार—बार मोका
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शबाब आ रहा है, शबाब आ रहा है
दहकता हुआ आफताब आ रहा है
हैं अठखेलियों पर चमन की हवाएं
नए सिरे से फिर इंकलाब आ रहा है
यह सूरज है मशरिक में या मैकदे में
कोई ले के जामे—शराब आ रहा है
यह कौसे—कुजह है कि बज्ये—फलक से
मुगन्नी उठाए रबाब आ रहा है
कंवल खिल रहा है कि हौजे—चमन से
उभरता हुआ आफताब आ रहा है
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आपकी जिद ने मुझे और पिलाई हजरत
शेखजी इतनी नसीहत भी बुरी होती है
पी लोगे तो ऐ शेख जरा गर्म रहोगे
ठंडा ही न कर दें कहीं जन्नत की
हवाएं
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