Wednesday, 10 June 2015

मन ही पूजा मन ही धूप–(संत रैदास) प्रवचन–10


जू जू दयारेइश्क में बढ़ता गया
तोहमतें मिलती गईं, रुसवाइयां मिलती गईं।
…………………………………………………………..
तदबीर ही तेरी नाकिस थी, तकदीर को तू इलजाम न दे
कर सब जरा, कारेमुश्किल सब वक्त पर आसा होते हैं
………………………………………………………………………………..
कफस में और नशेमन में रह के देख लिया
कहीं भी चैन मुझे जेरेआस्मां न मिला
…………………………………………………………………………….
हैं जाहिर उस पे चमन की हकीकतें जिसने
शगुफ्ता लालागुल का मआल देखा है
नहीं है दिल में तमन्नाएवस्त तक बाकी
फिराकेयार में इतना मलाल देखा है
……………………………………………………………………..
चमन वालों को या रब तूने यह किस फेर में डाला
कभी फस्लेखिजां आई, कभी फस्लेबहार आई
……………………………………………………………………….
आशिया में न कोई जहमत न कफस में तकलीफ
सब बराबर हैं तबीयत अगर आजाद रहे
………………………………………………………………….
फिर बढ़ चला तलातुमेतूफानेआरजू
हालांकि डूब कर अभी उभरा नहीं हूं मैं
……………………………………………………………..
तवज्जोह सर्फ करता वाकई गर नाखुदा अपनी
तो क्यों साहिल से टकरा के किश्ती डूबती अपनी
माझी ने थोड़ा होश रखा होता, तवज्जोह, थोड़ा ध्यान दिया होता!
तवज्जोह सर्फ करता वाकई गर नाखुदा अपनी
अगर माझी ने थोड़ा ध्यान दिया होता, थोड़ा होश रखा होता!
तो क्यों साहिल से टकरा के किश्ती डूबती अपनी
………………………………………………………………………………………..
सत्य है रवि, सत्य रवि की दीप्त किरणें भी
पर मनोहर बादलों की श्यामली माया
सत्य है व्यवधान अंतर, सत्य तुम मैं भी
किंतु फिर भी यह निलय का भाव घिर आया
क्योंकि दोनों सत्य हैं तम भी उजेला भी
मैं तुम्हारे साथ भी हूं प्रिय! अकेला भी।
……………………………………………………………………..
बहुत दिनों के बाद
आज फिर हवा चली है फागुन की! मेरे कुर्ते का छोर
तुम्हारी साड़ी का पल्ला
साथसाथ लहराता है
मन जाने किनकिन अनजान दिशाओं में
बह जाता है
बहुत दिनों के बाद!
बहुत दिनों के बाद
आज फिर खुला आसमान
सूरज की किरन चमकती है
अंधियारे कमरे की बंदी
मेरी अनुभूति
पंख लगा कर उड़ती है
बहुत दिनों के बाद!
बहुत दिनों के बाद
आज फिर फूला पलाश है
सेमल की डालों से अंगारे झड़ते हैं
अमलताश के पत्तों से मेरे शब्द
अर्थ खोजते
धरती से आसमान तक उड़ते हैं
बहुत दिनों के बाद
आज फिर हवा चली है फागुन की!
…………………………………………………………….
मौसम के जूड़े को देर तक टटोलूंगा
एकएक गांठ को उम्रउम्र खोलूंगा
गांठगांठ खोलनी है जीवन की!
मौसम के जूड़े को देर तक टटोलूंगा
एकएक गांठ को उम्रउम्र खोलूंगा
शायद हो गंध कहीं उन आदिम फूलों की
धुंधली तस्वीर कहीं तीर पर बबूलों की
भूलें वे जिनको नित टोक कर, हिकार कर
कुढ़ीकुढ़ी नजरें हों बूढ़े उसूलों की।
शबनम के कूड़े को देर तक बटोरूंगा
एकएक कतरे को जन्मजन्म टोलूंगा
शायद हो छंद कोई चंदा की फांक सा
मिल जाए मन कोई घुट कर छटांक सा
पलकें वे जिनको नित ताक कर, निहार कर
सूरज हो पड़ा कहीं काजली सलाख सा
संयम के पलड़े को देर तक झिझोडूगा
एकएक खतरे को बारबार मोका
…………………………………………………………………….
शबाब आ रहा है, शबाब आ रहा है
दहकता हुआ आफताब आ रहा है
हैं अठखेलियों पर चमन की हवाएं
नए सिरे से फिर इंकलाब आ रहा है
यह सूरज है मशरिक में या मैकदे में
कोई ले के जामेशराब आ रहा है
यह कौसेकुजह है कि बज्येफलक से
मुगन्नी उठाए रबाब आ रहा है
कंवल खिल रहा है कि हौजेचमन से
उभरता हुआ आफताब आ रहा है
………………………………………………………………………
आपकी जिद ने मुझे और पिलाई हजरत
शेखजी इतनी नसीहत भी बुरी होती है
पी लोगे तो ऐ शेख जरा गर्म रहोगे
ठंडा ही न कर दें कहीं जन्नत की हवाएं


…………………………………………………………….

No comments:

Post a Comment