यह महलों, यह तख्तों, यह ताजों की दुनिया
यह इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया
यह दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
हर एक जिस्म घायल, हर इक रूह प्यासी
निगाहों में उलझन, दिलों में उदासी
यह दुनिया है या आलमे-बदहवासी
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
यहां इक खिलौना है इन्सां की हस्ती
यह बस्ती है मुर्दा -परस्तों की बस्ती
यहां पर तो जीवन से है मौत सस्ती
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
जवानी भटकती है बदकार बनकर
जवा जिस्म सजते हैं बाजार बनकर
यहां प्यार होता है व्योपार बनकर
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
यह दुनिया जहां आदमी कुछ नहीं है
वफा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है
जहां प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
जला दो उसे फूंक डालो यह दुनिया
मेरे सामने से हटा लो यह दुनिया
तुम्हारी है तुम ही सम्हालो यह दुनिया
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
--------------------------------------------------
चहल -पहल की इस नगरी में हम तो निपट बिराने हैं
हम इतने अज्ञानी, निज को हम ही स्वयं अजाने हैं!
इसीलिए हम तुमसे कहते
दोस्त हमारा नाम न पूछो!
हम तो रमते -रमते सदा के
दोस्त हमारा गाम न पूछो!
एक यंत्र – सा, जो कि नियति के
हाथों से संचालित होता
कुछ ऐसा अस्तित्व हमारा,
दोस्त हमारा काम न पूछो!
यहां सफलता या असफलता, ये तो सिर्फ बहाने हैं।
केवल इतना सत्य कि निज को हम ही स्वयं अजाने हैं।
चरणों में कंपन है, मस्तक पर शत-शत शंकाएं हैं
अंधकार आखों में, उर में चुभती हुई व्यथाएं हैं!
अपनी इन निर्बलताओं का,
हम कहते हैं -हमें ज्ञान है,
इसीलिए हम ढूंढ रहे हैं जो शाश्वत है,
जो महान है! जितने देखे-मिटने वाले।
जीवन औ’ निर्माण लिए जो प्रेम अकेला शक्तिवान है!
बुरा न मानो, जनम -जनम के हम तो प्रेम दीवाने हैं
इसीलिए हम तुमसे कहते, हम तो निपट बिराने हैं!
चहल -पहल की इस नगरी में हम तो निपट बिराने हैं
हम इतने अज्ञानी, निज को हम ही स्वयं अजाने हैं!
===========================
मेरी भूलों से मत उलझो,
जनम जनम का मैं अज्ञानी!
कांटो से निज राह सजाकर,
मैंने उस पर चलना सीखा,
श्वासों में निःश्वास बसाकर
मैंने उस पर पलना सीखा
गलना सीखा मैंने निशि-दिन
निज आखों का पानी बन कर,
अपने घर में आग लगा कर
मैंने उसमें जलना सीखा।
मुझे नियति ने दे रक्खी है
पागलपन से भरी जवानी!
मेरी भूलों से मत उलझो,
जनम -जनम का मैं अज्ञानी!
लगातार मैं जीता जाता,
भरता जाता मेरा प्याला!
मैं क्या जानूं क्या है अमृत?
क्या जानू क्या यहा हलाहल?
खारा- खारा नीर उदधि का,
मीठा-मीठा है गंगा-जल!
सुनने को तो सुन लेता हूं
कडुवे – मीठे बोल जगत के,
तड़प-तड़प उठती है बिजली,
बरस -बरस पड़ते हैं बादल!
कौन पिलाने ताला, बोलो,
कौन यहां पर पीने वाला?
लगातार मैं पीता जाता,
भरता जाता मेरा प्याला!
सीधा-सादा ज्ञान तुम्हारा,
बहकी-बहकी मेरी बातें!
एक तड़प उसकी हर धड़कन,
जिसको तुम सब कहते हो दिल
और स्वयं मैं एक लहर हूं
मैं क्या जानूं क्या है साहिल?
मेरे मन में नयी उमंगें मेरे पैरों में चंचलता, पिछली मंजिल छोड़ चुका हूं।
ज्ञात नहीं है अगली मंजिल!
सबके सपने अलग- अलक हैं,
यद्यपि वही हैं सबकी रातें!
सीधा-सादा ज्ञान तुम्हारा,
बहकी-बहकी मेरी बातें!
जरा मनुष्य को देखो।
====================
आत्माएं गिरवी रख
सुविधाएं ले आये।
लोथड़ा कलेजे का,
वनबिलाव चीलों में
गंगा की गोदी में
या कि ताल-झीलों
में क्यारी मां जैसे
अपना बच्चा दे आये।
देकर के जन्म जन्म
के कर्जे ब्याज सहित
मांग रहे यौवन,
कुछ वय भोरी राज सहित।
यश फल उन्हें दे
हम समिधाएं ले आए।
उजालों भरी आखें,
मुंह पर पट्टी बाधे
अपनों पर अपने ही
आज निशाने साधे।
शांति वनों से लौटे
दुविधाएं ले आये।
आत्माएं गिरवी रख
सुविधाएं ले आये।
-===-------------=====================-------------==
देखो, सोचो, समझो, सुनो, गुनो और जानो!
इसको, उसको संभव हो निज को पहचानो!
लेकिन अपना चेहरा जैसा है रहने दो!
जीवन की धारा में अपने को बहने दो!
तुम जो कुछ हो वही रहोगे, मेरी मानो!
वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रबुद्ध ज्ञानी हो!
तुम समर्थ, तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो!
लेकिन अचरज इतना, तुम कितने भोले हो!
ऊपर से ठोस दिखो, अंदर से पोले हो!
बन कर मिट जाने की एक तुम कहानी हो!
पल में रो देते हो, पल में हंस पड़ते हो!
अपने में रम कर तुम अपने से लड़ते हो!
पर यह सब तुम करते-इस पर मुझको शक है!
दर्शन, मीमासा-यह फुरसत की बकझक हैं!
जमने की कोशिश में तुम रोज उखड़ते हो!
थोड़ी-सी घुटन और थोड़ी रंगीनी में
चुटकी भर मिरचे में, मुट्ठी भर चीनी में
जिंदगी तुम्हारी सीमित है, इतना सच है
इससे जो कुछ ज्यादा, वह सब तो लालच है
दोस्त उस कटने दो इस तमाशबीनी में! धोखा है
प्रेम-बैर, इसको तुम मत ठानों! कडुवा या मीठा,
रस तो है छक कर छानों चलने का अंत नहीं,
दिशा-ज्ञान कच्चा है!
भ्रमने का मारग ही सीधा है सच्चा है!
जब-जब थक कर उलझो, तब -तब लंबी तानों!
ऐसा समझाने वाले चारों तरफ मौजूद हैं।
चलने का अंत नहीं, दिशा-ज्ञान कच्चा है!
भ्रमने का मारग ही सीधा है, सच्चा है!
==============----------================
बोया था आम जो, बबूल हो गया
सोने -सा सपना था, धूल हो गया!
बाग में गुलाब
कांपने लगा
बेला पर काली छाया पड़ी
चंपे की टूट गयीं टहनियां
सूख गयीं
सोनजूही खड़ी-खड़ी
सारा मौसम ही प्रतिकूल हो गया!
दिग्गज आपस में
टकरा गये
सिहर उठा सारा वातावरण
असमय ही विग्रह के ज्वार उठे
मुश्किल है
सागर का संतरण
किश्ती से गायब मस्तूल हो गया!
गांव- गांव जा कर
बांटे गये
आखिर उन वादों का क्या हुआ?
घर – आंगन जगमग करने
वाले निश्चयी इरादों का
क्या हुआ?
हर कोई खुद में मशगूल हो गया!
बस यह खुद, यह खुदी खुदा को अटकाए है।
हर कोई खुद में मशगूल हो गया
किश्ती से गायब मस्तूल हो गया!
सारा मौसम ही प्रतिकुल हो गया!
बोया था आम जो, बबूल हो गया
सोने -सा सपना था, धूल हो गया!
यह जिंदगी स्वर्ण की हो सकती है;
धूल हुई जा रही! फूल हो सकती है;
धूल हुई जा रही है! आम हो सकती है;
बबूल हुई जा रही है! नाव तो डूबेगी,
-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=
मत दुखी हो मुक्ति की आकांक्षाओं
क्योंकि मेरा धैर्य तो हारा नहीं है।
जी रहे हैं और हम जीना सिखाते
दर्द पी कर दर्द का पीना सिखाते
क्या हमारी राह में रोड़े अडें-गे
जब कि रोड़ों को स्वयं ठोकर लगाते
जो स्वयं के ताप से ऊपर चढ़ेगा
वह अडिग संकल्प है पारा नहीं है।
आज तक हमने उठाया है तीरों को
और अपना कर चले हैं सहचरों को
सामने जब पर्वतें ने राह रोकी
कर दिया तब चूर ऐसे पत्थरों को
शौर्य की उत्तालता क्यों देखते हो
सिंधु है यह सूखती धारा नहीं है।
गीत में जो लय न बाधे छंद कैसा
एकता लाए न वह संबंध कैसा
जन्म से स्वाधीनता पर स्वत्व सब का
व्यक्ति पर संगीन का प्रतिबंध कैसा
कोकिला उन्मुक्त गाती है विपिन में
स्वर -लहरियों को कहीं कार। नहीं है।
लोक में आलोक ही करता रहेगा
युद्ध में तममोम जहां भी मांग सूनी
उस जगह आदर्श को भरता रहेगा
सूर्य तो सन्मुख उदय ले कर चला है
यह अमावस से घिरा तारा नहीं है।
सूर्य बनो-स्मरण के सूर्य, सुरति के सूर्य!
जागरण के दीये बनो।
सूर्य तो सम्मुख उदय ले कर चला है
यह अमावस से घिरा तारा नहीं है
कोकिला उन्मुक्त गाती है विपिन में
स्वर; लहरियों को कहीं कार। नहीं है
शौर्य की उत्तालता क्यों देखते हो सिंधु है
यह सूखती धारा नहीं है
जो स्वयं के ताप से ऊपर चढ़ेगा
वह अडिग संकल्प है पारा नहीं है
मत दुखी हो मुक्ति की आकांक्षाओं
क्योंकि मेरा धैर्य तो हारा नहीं है
-\-=-=--=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=
यह इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया
यह दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
हर एक जिस्म घायल, हर इक रूह प्यासी
निगाहों में उलझन, दिलों में उदासी
यह दुनिया है या आलमे-बदहवासी
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
यहां इक खिलौना है इन्सां की हस्ती
यह बस्ती है मुर्दा -परस्तों की बस्ती
यहां पर तो जीवन से है मौत सस्ती
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
जवानी भटकती है बदकार बनकर
जवा जिस्म सजते हैं बाजार बनकर
यहां प्यार होता है व्योपार बनकर
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
यह दुनिया जहां आदमी कुछ नहीं है
वफा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है
जहां प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
जला दो उसे फूंक डालो यह दुनिया
मेरे सामने से हटा लो यह दुनिया
तुम्हारी है तुम ही सम्हालो यह दुनिया
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
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चहल -पहल की इस नगरी में हम तो निपट बिराने हैं
हम इतने अज्ञानी, निज को हम ही स्वयं अजाने हैं!
इसीलिए हम तुमसे कहते
दोस्त हमारा नाम न पूछो!
हम तो रमते -रमते सदा के
दोस्त हमारा गाम न पूछो!
एक यंत्र – सा, जो कि नियति के
हाथों से संचालित होता
कुछ ऐसा अस्तित्व हमारा,
दोस्त हमारा काम न पूछो!
यहां सफलता या असफलता, ये तो सिर्फ बहाने हैं।
केवल इतना सत्य कि निज को हम ही स्वयं अजाने हैं।
चरणों में कंपन है, मस्तक पर शत-शत शंकाएं हैं
अंधकार आखों में, उर में चुभती हुई व्यथाएं हैं!
अपनी इन निर्बलताओं का,
हम कहते हैं -हमें ज्ञान है,
इसीलिए हम ढूंढ रहे हैं जो शाश्वत है,
जो महान है! जितने देखे-मिटने वाले।
जीवन औ’ निर्माण लिए जो प्रेम अकेला शक्तिवान है!
बुरा न मानो, जनम -जनम के हम तो प्रेम दीवाने हैं
इसीलिए हम तुमसे कहते, हम तो निपट बिराने हैं!
चहल -पहल की इस नगरी में हम तो निपट बिराने हैं
हम इतने अज्ञानी, निज को हम ही स्वयं अजाने हैं!
===========================
मेरी भूलों से मत उलझो,
जनम जनम का मैं अज्ञानी!
कांटो से निज राह सजाकर,
मैंने उस पर चलना सीखा,
श्वासों में निःश्वास बसाकर
मैंने उस पर पलना सीखा
गलना सीखा मैंने निशि-दिन
निज आखों का पानी बन कर,
अपने घर में आग लगा कर
मैंने उसमें जलना सीखा।
मुझे नियति ने दे रक्खी है
पागलपन से भरी जवानी!
मेरी भूलों से मत उलझो,
जनम -जनम का मैं अज्ञानी!
लगातार मैं जीता जाता,
भरता जाता मेरा प्याला!
मैं क्या जानूं क्या है अमृत?
क्या जानू क्या यहा हलाहल?
खारा- खारा नीर उदधि का,
मीठा-मीठा है गंगा-जल!
सुनने को तो सुन लेता हूं
कडुवे – मीठे बोल जगत के,
तड़प-तड़प उठती है बिजली,
बरस -बरस पड़ते हैं बादल!
कौन पिलाने ताला, बोलो,
कौन यहां पर पीने वाला?
लगातार मैं पीता जाता,
भरता जाता मेरा प्याला!
सीधा-सादा ज्ञान तुम्हारा,
बहकी-बहकी मेरी बातें!
एक तड़प उसकी हर धड़कन,
जिसको तुम सब कहते हो दिल
और स्वयं मैं एक लहर हूं
मैं क्या जानूं क्या है साहिल?
मेरे मन में नयी उमंगें मेरे पैरों में चंचलता, पिछली मंजिल छोड़ चुका हूं।
ज्ञात नहीं है अगली मंजिल!
सबके सपने अलग- अलक हैं,
यद्यपि वही हैं सबकी रातें!
सीधा-सादा ज्ञान तुम्हारा,
बहकी-बहकी मेरी बातें!
जरा मनुष्य को देखो।
====================
आत्माएं गिरवी रख
सुविधाएं ले आये।
लोथड़ा कलेजे का,
वनबिलाव चीलों में
गंगा की गोदी में
या कि ताल-झीलों
में क्यारी मां जैसे
अपना बच्चा दे आये।
देकर के जन्म जन्म
के कर्जे ब्याज सहित
मांग रहे यौवन,
कुछ वय भोरी राज सहित।
यश फल उन्हें दे
हम समिधाएं ले आए।
उजालों भरी आखें,
मुंह पर पट्टी बाधे
अपनों पर अपने ही
आज निशाने साधे।
शांति वनों से लौटे
दुविधाएं ले आये।
आत्माएं गिरवी रख
सुविधाएं ले आये।
-===-------------=====================-------------==
देखो, सोचो, समझो, सुनो, गुनो और जानो!
इसको, उसको संभव हो निज को पहचानो!
लेकिन अपना चेहरा जैसा है रहने दो!
जीवन की धारा में अपने को बहने दो!
तुम जो कुछ हो वही रहोगे, मेरी मानो!
वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रबुद्ध ज्ञानी हो!
तुम समर्थ, तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो!
लेकिन अचरज इतना, तुम कितने भोले हो!
ऊपर से ठोस दिखो, अंदर से पोले हो!
बन कर मिट जाने की एक तुम कहानी हो!
पल में रो देते हो, पल में हंस पड़ते हो!
अपने में रम कर तुम अपने से लड़ते हो!
पर यह सब तुम करते-इस पर मुझको शक है!
दर्शन, मीमासा-यह फुरसत की बकझक हैं!
जमने की कोशिश में तुम रोज उखड़ते हो!
थोड़ी-सी घुटन और थोड़ी रंगीनी में
चुटकी भर मिरचे में, मुट्ठी भर चीनी में
जिंदगी तुम्हारी सीमित है, इतना सच है
इससे जो कुछ ज्यादा, वह सब तो लालच है
दोस्त उस कटने दो इस तमाशबीनी में! धोखा है
प्रेम-बैर, इसको तुम मत ठानों! कडुवा या मीठा,
रस तो है छक कर छानों चलने का अंत नहीं,
दिशा-ज्ञान कच्चा है!
भ्रमने का मारग ही सीधा है सच्चा है!
जब-जब थक कर उलझो, तब -तब लंबी तानों!
ऐसा समझाने वाले चारों तरफ मौजूद हैं।
चलने का अंत नहीं, दिशा-ज्ञान कच्चा है!
भ्रमने का मारग ही सीधा है, सच्चा है!
==============----------================
बोया था आम जो, बबूल हो गया
सोने -सा सपना था, धूल हो गया!
बाग में गुलाब
कांपने लगा
बेला पर काली छाया पड़ी
चंपे की टूट गयीं टहनियां
सूख गयीं
सोनजूही खड़ी-खड़ी
सारा मौसम ही प्रतिकूल हो गया!
दिग्गज आपस में
टकरा गये
सिहर उठा सारा वातावरण
असमय ही विग्रह के ज्वार उठे
मुश्किल है
सागर का संतरण
किश्ती से गायब मस्तूल हो गया!
गांव- गांव जा कर
बांटे गये
आखिर उन वादों का क्या हुआ?
घर – आंगन जगमग करने
वाले निश्चयी इरादों का
क्या हुआ?
हर कोई खुद में मशगूल हो गया!
बस यह खुद, यह खुदी खुदा को अटकाए है।
हर कोई खुद में मशगूल हो गया
किश्ती से गायब मस्तूल हो गया!
सारा मौसम ही प्रतिकुल हो गया!
बोया था आम जो, बबूल हो गया
सोने -सा सपना था, धूल हो गया!
यह जिंदगी स्वर्ण की हो सकती है;
धूल हुई जा रही! फूल हो सकती है;
धूल हुई जा रही है! आम हो सकती है;
बबूल हुई जा रही है! नाव तो डूबेगी,
-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=
मत दुखी हो मुक्ति की आकांक्षाओं
क्योंकि मेरा धैर्य तो हारा नहीं है।
जी रहे हैं और हम जीना सिखाते
दर्द पी कर दर्द का पीना सिखाते
क्या हमारी राह में रोड़े अडें-गे
जब कि रोड़ों को स्वयं ठोकर लगाते
जो स्वयं के ताप से ऊपर चढ़ेगा
वह अडिग संकल्प है पारा नहीं है।
आज तक हमने उठाया है तीरों को
और अपना कर चले हैं सहचरों को
सामने जब पर्वतें ने राह रोकी
कर दिया तब चूर ऐसे पत्थरों को
शौर्य की उत्तालता क्यों देखते हो
सिंधु है यह सूखती धारा नहीं है।
गीत में जो लय न बाधे छंद कैसा
एकता लाए न वह संबंध कैसा
जन्म से स्वाधीनता पर स्वत्व सब का
व्यक्ति पर संगीन का प्रतिबंध कैसा
कोकिला उन्मुक्त गाती है विपिन में
स्वर -लहरियों को कहीं कार। नहीं है।
लोक में आलोक ही करता रहेगा
युद्ध में तममोम जहां भी मांग सूनी
उस जगह आदर्श को भरता रहेगा
सूर्य तो सन्मुख उदय ले कर चला है
यह अमावस से घिरा तारा नहीं है।
सूर्य बनो-स्मरण के सूर्य, सुरति के सूर्य!
जागरण के दीये बनो।
सूर्य तो सम्मुख उदय ले कर चला है
यह अमावस से घिरा तारा नहीं है
कोकिला उन्मुक्त गाती है विपिन में
स्वर; लहरियों को कहीं कार। नहीं है
शौर्य की उत्तालता क्यों देखते हो सिंधु है
यह सूखती धारा नहीं है
जो स्वयं के ताप से ऊपर चढ़ेगा
वह अडिग संकल्प है पारा नहीं है
मत दुखी हो मुक्ति की आकांक्षाओं
क्योंकि मेरा धैर्य तो हारा नहीं है
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