Friday, 5 June 2015

अजहू चेत गवांर (संत पलटूदास) प्रवचन–13

 जैसे नद्दी एक है, बहुतेरे हैं घाट।।
बहुतेरे हैं घाट, भेद भक्तन में नाना।
जो जेहि संगत परा, ताहि के हाथ बिकाना।।
चाहे जैसी करै भक्ति, सब नामहिं केरी।
जाकी जैसी बूझ, मारग सो तैसी हेरी।।
फेर खाय इक गए, एक ठौ गए सिताबी।
आखिर पहुंचे राह, दिना दस भई खराबी।।
पलटू एकै टेक ना, जेतिक भेस तै बाट।
जैसे नद्दी एक है, बहुतेरे हैं घाट ।।19।।
 
 
लेहु परोसिनि झोंपड़ा, नित उठि बाढ़त रार।।
नित उठि बाढ़त रार, काहिको सरबरि कीजै।
तजिए ऐसा संग, देस चलि दूसर लीजै।।
जीवन है दिन चार, काहे को कीजै रोसा।
तजिए सब जंजाल, नाम कै करौ भरोसा।।
भीख मांग बरु खाय, खटपटी नीक न लागै।
भरी गौन गुण तजै, तहां से सांझै भागै।।
पलटू ऐसन बुझि के, डारि दिहा सिर भार।
लेहु परोसिनि झोंपड़ा, नित उठ बाढ़त रार।।20।।
 
 
जल पषान को छोड़िकै, पूजौ आतमदेव।।
पूजौ आतमदेव, खाय औ बोलै भाई।
छाती दैकै पांव पथर की मुरत बनाई।।
ताहि धोय अन्हवाय विजन लै भोग लगाई।
साच्छात भगवान द्वार से भूखा जाई।।
काह लिए बैराग, झूठ कै बांधै बाना।
भाव-भक्ति को मरम कोइ है बिरलै जाना।।
पलटू दोउ कर जोरिकै गुरु संतन को सेव।
जल पषान को छोड़िकै पूजौ आतमदेव।।21।।
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इश्क फानी न हुस्न फानी है
इनका हर लम्हा जाविदानी है
देख रिंदों पर इतना तअन न कर
देख रुत किस कदर सुहानी है।
न तो प्रेम क्षणभंगुर है और न सौंदर्य क्षणभंगुर है।
इश्क फानी न हुस्न फानी है
इनका हर लम्हा जाविदानी है।
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ए अहलेकरम नहीं मैं साइल,
रास्ते पर यूं ही खड़ा हुआ हूं
अब शिकवा-ए-संगो खिश्त कैसा
जब तेरी गली में आ गया हूं।
ए अहलेकरम नहीं मैं साइल!
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मशरफ के बगैर जल रहा हूं
मैं सूने मकान का दीया हूं।
मंजिल न कोई जादा, फिर भी
आशोबे सफर में मुब्तिला हूं।
मशरफ के बगैर जल रहा हूं! कोई कारण नहीं है तुम्हारी जिंदगी का, कोई उद्देश्य नहीं है, कोई दिशा नहीं है, कोई औचित्य नहीं है कि क्यों जी रहे हो। मशरफ के बगैर जल रहा हूं। बिना किसी औचित्य के जल रहा हूं।
मैं सूने मकान का दीया हूं।
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