कह
न ठंढी सांस में
अब भूल वह जलती कहानी
आग हो उर में तभी
दृग में सजेगा आज पानी
हार भी तेरी बनेगी
मानिनी जय की पताका
राख क्षणिक पतंग की है
अमर दीपक की निशानी
वेध दो मेरा हृदय
माला बनूं, प्रतिकूल क्या है?
मैं तुम्हें पहचान लूं इस कूल
तो उस कूल क्या है?
शिष्य तो बंधने को तैयार है।
बेध दो मेरा हृदय
माला बनूं, प्रतिकूल क्या है?
बस माला का फूल बन जाऊं. . . “बेध दो मेरा हृदय, छेद दो मेरा हृदय। माला
बनूं, प्रतिकूल क्या है? ‘ तुम्हारे छेदने में कुछ
दुश्मनी नहीं है। छेद दो, नहीं तो माला का हिस्सा
नहीं बन पाऊंगा।
मैं तुम्हें पहचान लूं इस कूल
तो उस कूल क्या है?
कहीं भी पहचान हो जाए–इस
कूल तो यहां, उस कूल तो वहां–जहां ले चलो। चलने को राजी
हूं।
मैं तुम्हें पहचान लूं इस कूल
तो उस कूल क्या है?
कह न ठंढी सांस में
अब भूल वह जलती कहानी
आग हो उर में तभी
दृग में सजेगा आज पानी
हार भी तेरी बनेगी
मानिनी जय की पताका।
शिष्य जब हारता है तो ही विजेता होता है। गुरु से हार जाने
से बड़ी और कोई विजय नहीं है। गुरु से जीतने की कोशिश तुम्हारी हारने की संभावना
है। गुरु से जीतने की चेष्टा, अपने को बचाए रखने का
प्रयास–तुम्हारी पराजय है। यह विरोधाभासी वचन ठीक से खयाल में
रखना। धन्यभागी हैं वे जो गुरु से हार जाएं, क्योंकि वहीं जीत गए।
हार भी तेरी बनेगी
मानिनी जय की पताका
राख क्षणिक पतंग की
है अमर दीपक की निशानी
बेध दो मेरा हृदय माला बनूं,
प्रतिकूल क्या है?
मैं तुम्हें पहचान लूं इस कूल
तो उस कूल क्या है?
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